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मैं भूख को जानती हूं।
हम मुनष्य ख़ुद को हर मामले में जानवरों से बेहतर समझते हैं और समझदार भी। कहते हैं कि हममें और पशुओं में एक मात्र विभेद "समझ" का ही है लेकिन फ़िर भी हम मनुष्यों से अधिक नादानी शायद ही कोई करता हो। जानें क्यों सब कुछ जानते, बूझते, देखते, समझते भी हम क्यों कुछ नहीं समझ पाते! उदाहरण के लिए अनाज को ही ले लें.. वैदिक साहित्य में अन्न को ब्रह्मा की संज्ञा दी गई है "अन्न वै ब्रह्म"। अगर हम सबको समान रूप से वेदों की सामान्य जानकारी नहीं भी हो तो कम से कम हम सबको "अन्नपूर्णा देवी" के रूप में अन्न के दैवीकरण के माध्यम से अन्न की महत्ता का अंदाज़ा तो होगा ही और अगर ये भी नहीं तो हम सब के बड़े बुजुर्गों ने कभी ना कभी हम सबसे रोटी (अन्न) ना फेंकने की ताकीद की ही होगी और ना मानने पर "अन्न सड़ने पर शाप/श्राप देते हैं" कह कर डराया भी होगा। लेकिन हम तो हम ठहरे.. सब कुछ जान कर अंजान बनना और जिस डाल पर बैठें हैं उसे ही काटना तो कोई हमसे सीखे। भारत संभवत: दुनिया का इकलौता देश होगा जहां सबसे ज्यादा भुखमरी के शिकार लोग होने के बावजूद भी थोड़ी सी खाद्य वस्तु को प्लेट में छोड़ देना संपन्नता की निशानी समझा जाता है। सब कुछ पहले से जानने के बावजूद भी जब तक संकट हमारे सिर पर तांडव ना करे हम कुछ नहीं समझते। पहली बार जब घर छोड़ा था तब बहुत नाज़ नखरे थे जैसे.. भिंडी, करेला, ब्रोकली, बीन्स बोले तो सारी की सारी पौष्टिक सब्जियां नहीं खाती थी। नमक कम पे नाक सिंकोड़ना और ज्यादा होने पर भड़क कर खाने की टेबल से उठ जाना और भी जानें क्या-क्या... कितनी सब्जियों के साथ ऐसा भी था की इनकी सूखी सब्जी पसंद है और इनकी तरी वाली ही वगैरह। अब इन नखरों के बीच दिल्ली में नई-नई शिफ्ट होने पर टिफिन का खाना हलक से नीचे नहीं उतरता था। हम हर दिन खाने को देख मुंह बनाते और टिफिन वाले को फ़ोन कर बातें सुनाते। टिफिन वालों को भी शायद हम जैसों की आदत थी या कोई ख़ास किस्म का योग इत्यादि करते थे तो उनके कान पर हमारी चूं-चां से कोई जूं तक नहीं रेंगती थी। जैसे कि मैंने एक दिन टिफिन वाले को फ़ोन कर डांटा कि आपने दाल में नमक क्यों नहीं डाला? उन्होंने मेरी बात काटते हुए बेहद शांतिपूर्वक कहा कि मैडम जी नमक तो पड़ा ही है हां, हल्दी डालना भूल गए हैं.. तब मैंने ध्यान दिया कि ज़िंदगी की प्राथमिकताएं अब इतनी बदल गई हैं कि अब हमें दाल में नमक भर से मतलब है रंग (हल्दी) की कमी तो उनके कहने से पहने हमें नज़र भी नहीं आई।
इसी तरह एक रात मैंने और मेरी रूममेट ने खाने को झुंझला कर गुस्से से रूम के बाहर रख दिया लेकिन रात के तीन बजे भूख लगने पर उसी टिफिन से सूख कर अकड़ चुकी रोटियों को निकाल कर किसी दिन बर्गर के साथ आए सस्ते कैच अप के साथ खाया और उस दिन मानों जिंदगी से एक और रियलिटी चेक हो गया हो। उसके कुछ समय बाद जब बाहर का खाना खाने से बीमार पड़ने लगी तब से गुज़रे आठ साल जिस तरह कटे उनमें रह रह कर मम्मी की डांट "सड़ते हुए अन्न शाप देते हैं" याद आती रही। जानें कितनी बार अपनी भूख को अन्न का शाप और अपनी गलतियों का दंड मान खुशी-खुशी भोगा भी। लेकिन कहते है ना कि दुःख के दिन या अभावों के दिन ही हमारी ज़िंदगी को कुंदन बनाते हैं। ज़िंदगी का तो पता नहीं लेकिन मन को थोड़ा-बहुत कुन्दन इन अनुभवों ने ही बनाया है। वैसे तो घर पर भी गौरैया को दाना और गाय को रोटी देने का रिवाज था सो दिन के और कामों की तरह कर देती थी लेकिन अब बात ही कुछ और है। एक दिन दो बजे यूनिवर्सिटी पहुंची और रोज की तरह कैंटीन में एक सैंडविच ऑर्डर की। सैंडविच आते ही एक कुत्ता पास आया और मैंने कागज़ वाली प्लेट को आधा फाड़ कर कुत्ते के सामने रखा और बारी -बारी से उसकी प्लेट में एक-एक टुकड़ा डालने लगी। कैंटीन के ओनर को मेरी ये हरकत निब्बियों वाली लगी तो उसके पास खड़े लड़के को लगा कि शायद मैं उस कुत्ते को जानती हूं... अगर उनमें से किसी ने भी मुझसे पूछा होता तो मैं कहती कि मैं भूख को जानती हूं।

© Neha Mishra "प्रियम"
17/03/2022

image source: pinterest