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बतकही- मिश्री सा नमक ….
मिश्री सा नमक …

ये जो मिश्री सा मीठा दाना देख रहे हो ना आप, साहब ये वही नमक है जो किसी मेहनतकश के बदन से निकलता है तो पसीना बन जाता है और जब ये किसी उल्फत या मुफ़लिसी के मारें बंदे की आँखों से बहता है तो आँसू हो जाता है।

जानते हो साहब, इस नमक की क़ीमत हम कभी चूका ही नहीं सकते ये कोई आम चीज़ नहीं है कि इसकी ख़रीद फ़रोख़्त करके हम ख़ुद को लाजवाब समझने लगें…अजी, ये तो वो अनमोल तोहफ़ा है जिससे ख़ुद हमें कुदरत ने नवाज़ा है।

इसकी क़ीमत का अंदाज़ा आप यूँ भी लगा सकते हो की इसी मुठ्ठी भर नमक के लिए गांधी जी ख़ुद साबरमती आश्रम से दांडी तक पैदल ही चल पड़े थे, तो उधर मुंशी प्रेमचंद ने नमक के दारोग़ा पर पूरा का पूरा उपन्यास ही लिख डाला था।

हमारे यहाँ एक कहावत है साहब, कि पैर की ठोकर से अगर नमक बिखर जाये तो उपर वाला उस नमक को हमारी पलकों से उठवाता है।

हम तो साहब, पैर लगाना तो दूर, इसकी बेअदबी की बात भी नहीं सोच पाते ….आख़िर सोचेंगे भी कैसे यही नमक तो है जो वक्त आने पर इंसान की पहचान करवाता है कि …कौन नमक हलाल है और कौन नमक हराम।

बीते दिनों धोराडो गया था, कच्छ के सफ़ेद रण में…..वहाँ मीलों तक नमक का रेगिस्तान है।

सच मानिए साहब जब जब उस नमकीन धरा पर पैर पड़ा तब तब कलेजा मुँह को आ गया..जिस नमक को सारी ज़िंदगी पैर की ठोकर से बचाते रहे आज वही नमक मीलों तक कदमों के नीचे बिखरा पड़ा था।

डरता हूँ , की अब ना जाने कितने जन्मों तक ये नमक इन पलकों से उठाना पड़ेगा….पलकों पर ख़्वाब सजाने की हसरतों पर शायद ये नमक का बोझ बहुत भारी पड़ेगा।

ईश्वर माफ़ करें....वैसे भी किसी शायर ने सच ही कहा है कि..

देखने भी जो वो जाते हैं किसी घायल को
इक नमक-दॉं में भर लेते हैं नमक पीस कर

वक्त यही है किसी के ज़ख़्मों पर मरहम करने के बजाय नमक लगाने का चलन निकल पड़ा है…शायद इस दौड़ में ये नमक अभी और आगे तक जाएगा।

सम्भव है कि किसी दिन ये ज़ख़्म इतने बढ़ जाएँगे की मीलों तक पसरा ये नमक का समन्दर भी कम पड़ जाए…ईश्वर कृपा करें।

बतकही- मिश्री सा नमक
विक्की सिंह सपोटरा
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