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निर्णय
रितु को मेंहदी लगाई जा‌रही थी।खूब खुशियां मनाई जा रहीं थीं।
नाच गाना हो रहा था।बारात आ गयी! बारात आ गयी! शोर सा मच गया। हलचल सी मच गयी,चारों ओर। फिर क्या था स्वागत सत्कार होने लगा। बड़े मान सम्मान से सबको चाय ,नाश्ता खाने का प्रबंध किया गया। कितने सारे लोग इस व्यवस्था को संभालने में जाने कितनी देर से लगे थे।ज्यों त्यों
नाश्ते से‌ निपटे। अगवानी हुई,फेरे का वक्त आया।
चाय से सबका फिर से स्वागत किया जा रहा था,पर जैसे"खाना और गुर्राना" वाली कहावत चरितार्थ हो गयी, कुछ कानाफूसी सी हुई, ये क्या चाय बनाई है, पानी जैसी!
ना दूध है ना शक्कर! पहले दूल्हे के फूफाजी भनके। फिर धीरे-धीरे इनके बाद कमियां निकालने बाले बढ़ने ही लग गये जैसे। अंत तक दूल्हे के बाप को भी भनका दिया गया।
बात ज्यादा बढ़ी, लड़की के घरवालों तक पहुंची। बेचारा लड़की का बाप दशरथ सिंह दौड़ा-दौड़ा आया। हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगा। उसे तो अपनी गलती का भी अहसास नहीं था । फिर क्या था, बात बिगड़ती गयी।और कमियों की जैसे लम्बी फेहरिस्त बनने लगी। अगवानी पर तिलक में कम पैसे दिए हैं ,ना गाड़ी दी ना कुछ और। यानि दहेज कम मिलने पर भिखारियों की तरह पैसे की मांग होने लगी। आबाजें उठने लगीं। तय क्या हुआ था, क्या दिया है ,ना रकम सही है ना कैश। सब गड़बड़ है। बारात बापिस जाएगी । रखो अपनी लड़की अपने पास। चलो रे सब।ये शादी नहीं होगी। दूल्हे के ‌फूफाजी गुस्से से बोले।
दशरथ सिंह गिड़गिड़ाने लगे, जैसे एक अपराधी हो गए थे वह । रो-रोकर‌ सबसे क्षमा याचना करने ‌लगे।
दूल्हे का बाप, उनका बड़ा दामाद और सभी एक साथ, उस असहाय बूढ़े पर बरस पड़े। धोखा दिया है तुमने हमें। अब ये‌शादी नहीं हो सकती।दशरथ सिंह पगड़ी पैरों में रखकर लगातार क्षमा मांगने में लगे थे । आँसुओं से तर उसकी आँखें कह रहीं थीं क्या लड़की का बाप होंना इतना बड़ा अपराध है। तभी अचानक दूल्हा ,राघव बीच में आया। बड़े सम्मान से वोला ! नहीं पिताजी, नहीं ,आप उठिए, ऐसे नहीं कहिए। आप भी मेरे पितृतुल्य हैं। कोई बापिस नहीं जाएगा।और शादी भी होगी, मैं सात फेरे लूंगा,रितु के साथ। और कोई भी दहेज नहीं ले जाएगा यहां से । सब हतप्रभ थे,राघव का साहस और मानवता देखकर। मगर उसके पिता, फूफाजी आदि उसको कोसने लगे। पर उसने किसी की एक ना सुनी।और दशरथ सिंह को उठाकर बाहों में भर लिया।जैसे पिता पुत्र का सचमुच मिलन हो गया हो।बस फिर क्या था ,अपने होने वाले दामाद से अपनत्व से भरे भाव और ऐसे शब्दों को सुनकर जैसे दशरथ सिंह को राघव में भगवान राम नजर आने लगे ।धन्य हो‌ बेटा, तुमने अपने पिता की कीर्ति उनकी खराब वाणी और कुसंस्कारों के बाबजूद भी नष्ट होने से ‌बचाई है । धन्य हो‌ तुम।तुमने सबकी आंखें खोल दीं। दशरथ सिंह की आँखों से जैसे अब प्रेमाश्रु रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उन्हें लगा कि जैसे आसमान से देवता भी पुष्पवर्षा कर रहे हों। यह देख ‌रितु की आँखों में भी एक अद्भुत चमक सी आ गयी थी जैसे ।अगाध प्रेम और सम्मान झलकने लगा था उसकी आंखों में अपने होने वाले पति राघव के लिए। वह अपलक निहारती जा रही थी राघव को।और गौरवान्वित हो रही थी ऐसा पति पाकर।

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