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"कंटीली झाड़ियां" भाग-४
अमिता वो हरी किताब देखकर बहुत विस्मित हुईं, उसने वहीं एक आराम कुर्सी को अपनी ओर खींचा और उसके प्रथम पृष्ठ को पलटा तो उस पुस्तक में क्ई हतप्रभ करने वाली बातों से उसका सामना हुआ। पूरा वृत्तांत जो उसने पढ़ा उसका संक्षेप में वर्णन ये है...... ये कहानी मेरी है यानी भुवनेश्वर कुमार शर्मा की है,मैं एक जमींदार हूं और जमींदारी हमारे खानदान में पुरखों से चला आ रहा है मैं ऐसा नहीं कह सकता क्योंकि सुना है कि मेरे परदादा के दादा जी कुम्हार थें दादाजी भी मेरी तरह लिखते थे, उनकी डायरी से पता चला है कि उनका नाम सारंग कुमार शर्मा था लेकिन वो बहुत मेहनती थें और एक दिन किसी स्त्री ने उनके सारे बर्तन शहर जाकर बेंच दिए और उन्हें बहुत सी मोहरे दीं धीरे-धीरे वो अक्सर ही कहीं चली जाती और उन बर्तनों को बेचकर बदले में उनके लिए स्वर्ण मोहरे ले आती। मेरे परदादा के दादा जी बेहद प्रखर बुद्धि के मालिक थे। उन्होंने उन मोहरों से क्ई ज़मीने खरीद लिए और आहिस्ते-आहिस्ते वो उस गांव के जमींदार बन गये।
इधर उस स्त्री का उनके पास आना बंद हो गया पर वो उनके एहसानों को कभी नहीं भूले और उन्होंने एक डायरी लिखी जिसमें उन्होंने सारा वृत्तांत लिखा और मेरे परदादा को दे दिया, उन्होंने बहुत संभाल कर वो डायरी रख दीं, मेरे परदादा जी तो डायरी नहीं लिखते थे मगर मेरे दादाजी भी डायरी लिखते थे, उन्होंने उस डायरी को पढ़ा और अपने अनुभव अपनी जमींदारी सब कुछ एक डायरी में लिखा और जब तक जीवित रहे वो लिखते रहे।
फिर मेरे पिताजी का दौर आया तो वो डायरी तो नहीं लिखते थे मगर उन्होंने उन डायरियों को बहुत संभाल के रखा।
फिर मैं यानी भुवनेश्वर ‌ने इन तमाम डायरियों को एक जगह संलग्न किया और इसमें एक हरी जिल्द चढ़ा दी और साथ में मैंने अपने अनुभव भी इसमें लिखे हैं, लेकिन एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगा कि वो स्त्री जो भी थी जिसने हमारे पुरखाओ की मदद की थी मैं उनका आजीवन आभारी रहूंगा।इस डायरी को मैं अपने पुत्र ताराचंद शर्मा को सुपुर्द कर दूंगा क्योंकि मेरी भी अब उम्र हो चलीं है। दिनांक ३.१.१८२३
तारीख़ पढ़ कर अमिता भौंचक्की रह गई यानी सारंग सुकेश के परदादा जी के परदादा जी है।
अमिता सोचने लगी कि एक तो वो टाइम स्लिप कर गई थी दूसरे एक तरह से ये एक पैरेडाक्स भी है कि अगर वो मदद न करती तो क्या सुकेश के पुरखाओ की कहानी आज कुछ और होती?
अमिता जितना सोचती उसका सर चकरा जाता।फिर उसने डायरी को वापस संभाल कर रख दिया और लाईब्रेरी से बाहर आ गई और सोचने लगी कि सुकेश ने भी तो वो डायरी ज़रूर पढ़ी होगी मगर उसे क्या मालूम कि उसके परदादा जी के परदादा जी की मदद करने वाली स्त्री वो खुद है और सोचकर अमिता मुस्कुरा दी।
सच है कभी कभी हमारे जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घट जाती है जिनका उत्तर हमारे खुद के पास भी नहीं होता।
कुछ ही देर में बैल बजीं और अमिता ने दरवाज़ा खोल दिया और काव्या के साथ व्यस्त हो गई।
फिर कभी भी उसके लिए भविष्य के समय का द्वार नहीं खुला न वो फिर कभी भविष्य में जा सकीं। (समाप्त)
लेखन समय-4:21
दिनांक 21.7.24- रविवार


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