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बुझे हुए पटाखे
काली पूजा ही हमारे यहां दीपावली हुआ करती है । दुर्गा पूजा के ठीक २०वें दिन । दुर्गा पूजा पर मिले नए कपड़ों को दुबारा सहेजकर काली पूजा के लिए रख दिया जाता था । विजयादशमी का दिन हमारे लिए काफी खुशनुमा भी हुआ करता और उदासी लिए भी । खुशनुमा इसलिए कि उसी दिन बड़ों के पैर छूने पर पगड़ी यानी मेले घूमने के पैसे मिला करते और उदासी इसलिए कि मेला अब खत्म । दसों दिन खाली जेब मेला घूमने के बाद दशमी में कुछ नए सिक्कों की खन - खनाहट से हमारे चेहरे पर जो रौनक होती उसी की चकाचौंध से मेले गुलज़ार हुआ करते थे । दशमी के दिन नारियल के लड्डू और गुड़ वाली खोई का नायाब स्वाद वो भी नए सिक्कों के भारीपन लिए हमारे लिए एक सल्तनत के सरदार होने जैसा हुआ करता । खैर दशमी की जादू भरी रात पलकों में बीत जाती और मेला सिमटने के कगार पर हुआ करता ।

अब हमें रौशनी के पर्व काली पूजा का बेसब्री का इंतजार हुआ करता । सच तो यही है कि हमें पूजा से ज्यादा बारूद की वो गमगमाती गंध लेने का ज्यादा ही इंतजार रहता । पटाखों में पैसे खर्च करने का हौसला उन दिनों बहुत ही कम लोगों को था । फिर भी बारूद की गंध जरूरी थी त्योहार को रंगीन करने के लिए । उन दिनों एक पैकेट नागिन छाप ही हमारे लिए बोनांजा पैकेज हो जाया करता था और हम करीने से एक - एक लड़ियां छुड़ा - छुड़ा कर पटाखे अलग किया करते ताकि पलीती न निकल जाए । एक - एक पटाखा हमारे लिए हीरे से भी कीमती हुआ करता । लंबी सी संठी के मुंह के सिरे पर पटाखा फंसाकर डिबिया की लौ से पटाखा फोड़ लेने का हुनर हमें बखूबी था । छुड़छुड़ी , रस्सी, अनार , लौकी , हाइड्रो बम , रेल , रॉकेट, बुलेट न जाने कितने तरह के साजों समान हुआ करते मगर नागिन की लड़ी ही हमारे खजाने का नूर हुआ करती । सांप तो हम रोजाना बनाया करते । एक काली से टेबलेट को जलाकर पूरा सांप निकाल लेना सपेरों को भी नहीं आता था जितना कि हमें । दुर्गा पूजा के खत्म होते ही हम कैंडल बनाने का काम शुरू कर देते । हम जिस कैंडल की बात कर रहे वो मोमबत्ती वाली नहीं बल्कि बांस की बत्ती के शानदार ढांचे पर रंगीन पन्नी और कागज़ की नक्काशी की कर रहे । बत्तीस काठी , चौसठ काठी , चांद , तारा , दिल , जहाज और भी न जाने कितने ही डिज़ाइन के । शाहिद चौक और बनिया टोला चौक पर ऐसे कैंडल की दुकानें सजा करती और हम भी एक कुशल व्यापारी की तरह कुछ सिक्के कमा लिया करते । ये सिक्के पटाखों पर खर्च के लिए कतई नहीं हुआ करते । हमारे दिमाग में यह बात बैठा दी गई थी कि पटखों को जलाने का मतलब पैसा ही जलाना है और शायद इसलिए हम औरों के बुझे हुए पटाखों से बारूद निकलकर उसका प्रयोग किया करते । अधजले और बुझे हुए पटाखे ढूंढना हमारे लिए अलीबाबा के ख़ज़ाने ढूंढने से कम नहीं था । काफ़ी दुष्कर कार्य हुआ करता था । बड़ों की नजरों में आए बिना सड़कों से पटाखे हल्के पांव में चुपके से दबाते हुए उठा लेना काफी हुनर का काम था । हमें बेइज्जती की फिकर नहीं थी । फिकर थी बस पिटे जाने और शिद्दत से चुने सारे पटाखे छीनकर फेंके जाने की । ख़ैर , हम किसी तरह अपना असला तैयार कर ही लिया करते । काली पूजा की देर रात से लेकर तड़के सुबह उठकर सारे बुझे हुए पटाखे हम चुन ही लिया करते और सात ही में अधजली मोमबत्तियां भी जिसे हम गला - गलाकर अलग - अलग रूप दे दिया करते । बुझे हुए पटाखे का बारीकी से परीक्षण कर हम अलग - अलग कर लेते । जिसमें कुछ भी जान बची होती उसे धूप में सुखाकर फोड़ने का प्रयास करते और बाकियों का बारूद निकलकर या तो बड़ा बम बना लिया करते या बारूद को ही सावधानी से सुलगाकर उसका अद्भुत रूप और गंध को महसूस करते । हम अकेले नहीं होते थे , पूरी की पूरी पलटन साथ हुआ करती । रातभर ओस में भींगे बुझे हुए पटाखे को जिंदा कर लेना हमें बखूबी आता था । अक्सर बारूद हमारी आंखों को अंधेर कर दिया करती मगर उसका एक अलग ही नायब अनुभव था जो बडे़ लोगों को तो कभी मयस्सर भी नहीं हुआ । हम पटाखे भले भी बुझे हुए इस्तेमाल किया करते मगर हम खुद तरोताज हुआ करते थे ।

कहते हैं दिवाली पैसे वालों की होती है मगर सच तो यही है कि दिवाली का दीया तो हमारे दिलों में बिना सिक्कों की खनक के ही बखूबी जला करता जिनकी रौशनी हमारे दिलों से निकलकर पूरे मुहल्ले को जगमगाया करती और शमां गुलज़ार हुआ करती ।
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© राजू दत्ता