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बसंत पंचमी
बसंत पंचमी का नाम सुनते ही वो दिन बरबस ही आँखों के सामने तैरने लगते हैं । टीन के डब्बे में बंद चंद सिक्कों की खन - खन की आवाज़ के साथ चंदा काटने का वो सुकून भरा पल आँखों को नम कर देता है । अद्भुत राग हुआ करता था उस शोर का । दिन भर का वो दौर और शाम को पैसे गिनने का कौतूहल! वो पल कोई कैसे भूल सकता है ? चंदे में दूधवाले से दूध, फल वाले से फल और जो भी मिल जाता था वसूले जाते थे । वो तड़के की सुबह - सवेरे शहीद चौक पर गाय -भैंस के काफ़िले को रोककर चंदे की बकझक और फ़िर चंदा वसूल लेने के विजयभाव का वो गर्व अब भी गर्वित करता है । बांस लगाकर , रास्तों को रोककर सायकल वाले , रिक्शे वाले , स्कूटर वाले से चंदा काटना अपने आप में एक त्यौहार सा था । अबकी बार कौन सा क्लब कौन सा पंडाल सजायेगा , मूर्ति कहाँ से आएगी इसका पता लगाना एक अद्भुत अनुभव सा था । रायगंज से मूर्ति लाने का गौरव किसी -किसी को था । रायगंज की मूर्ति का एक अलग और अनूठा ही आकर्षण हुआ करता और उसके चर्चे यूं ही आम हुआ करते । दिनभर मिशन रोड , अनाथालय रोड और न्यूं मार्केट का चक्कर लगाना और बनती मूर्ति को अनंत बार बैठकर देखते रहना और मूर्ति वाले पाल काका से डांट फ़टकार खाकर भागना और छुपकर फ़िर देखना वो कौतूहल भला कौन भूल सका है ? क्लब की बयाना की गई मूर्ति को हम पुवाल बांधने से लेकर मिट्टी सजाने और रंग - रोगन तक रोज देखा करते और एक अद्भुत आनंद लिया करते । माँ की सारियों से पंडाल बनाना और सारी फटने पर डांट और पिटायी का वो मंज़र अभी तक ताज़ा है ।उन दिनों कोई ख़ास सजावट नहीं किया करते थे । शामियाने वाले तो बस बड़े क्लब वाले ही बुलाया करते । हम तो खुद ही असाधारण रूप से साधारण सा पंडाल बना उमंग में रहा करते थे । अब ख़ुद से पंडाल सजने की वो अनमोल काला अब खोती सी जा रही है। वो असाधारण कला अब जाती रही है । पूजा की रात रातभर जगना और चाय -पावरोटी का मज़ा लेने का वो सौभाग्य हमें मिला हुआ था । हल्की ठंड लिए उस सुहानी रात का सफ़र और दोस्तों के साथ चाय की चुस्की और अनोखा पंडाल जैसा स्वर्गिक सुख हमने पा रखा है । मूर्ति विसर्जन के बाद खिचड़ी बांटने और खाने का वो स्वर्गिक आनंद अद्भुत था । क्लब के मेंबर होने का सुख ये था कि प्रसाद और खिचड़ी ज़्यादा मिलता था जो कि किसी उच्च ओहदे से किसी भी मामले में कम न था । वैसी खिचड़ी बस पूजा में ही तैयार की जा सकती थी । उसका स्वाद आज भी जेहन में ताज़ा है और खुशबू हमारी सांसों में बसी है । झिलिया - बुनिया वाले प्रसाद की यादें भी बिलकुल अनोखी है । रातभर पैकेट तैयार करना और फिर दिनभर बांटना और खुद फांकते रहना । क्या मजे का उत्सव था वो । वो नाच -गाना , वो संगीत , वो रातभर कैरम खेलना वो आनंदित पल भुलाए नहीं भूले जा सकते। उन दिनों रात में वीसीआर चलाने का और एक ही रात में ३ से ४ फिल्में देख लेने का वो सुनहरा मौका हमने कभी नहीं खोया । खुले आसमान के नीचे शीत में भी हमने वो सुख की तपन के साथ अपना बचपन जीया है । ऐसे तो हमारे विद्यालय में भी पंडाल सजाए जाते मगर रुझान स्कूल से ज्यादा अपने क्लब में हुआ करता । एक क्लब भी था हमारा जिसका नाम चट्टान क्लब था । वो चट्टान क्लब अब नहीं रहा । हमारे बाद फिर कभी किसी बच्चों ने उस परम्परा को आगे नहीं बढ़ाया क्युकी वो जज़्बात और वो खयालात समय के साथ बदल चुके थे । अब साधन बहुत है मगर वो साधना नहीं । उन मधुर स्मृतियों का जादुई पिटारा हमने अभी भी अपनी अंतरात्मा में छिपाए रखा है और हर वक्त हमारे साथ ही चला करती है । आज चट्टान क्लब भले ही धरातल पर ना हो मगर जेहन में उसकी मधुर यादें चट्टान सी खड़ी हैं ।
© राजू दत्ता