अंगुलियाँ चाटना 😋
अभी-अभी नाश्ता किया, आज भी चम्मच के बजाय हाथों से खाना
चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
©Mridula Rajpurohit✍️
🗒️01 December, 2019
© All Rights Reserved
अभी-अभी नाश्ता किया, आज भी चम्मच के बजाय हाथों से खाना
चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
©Mridula Rajpurohit✍️
🗒️01 December, 2019
अभी-अभी नाश्ता किया, आज भी चम्मच के बजाय हाथों से खाना
चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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अभी-अभी नाश्ता किया, आज भी चम्मच के बजाय हाथों से खाना
चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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अभी-अभी नाश्ता किया, आज भी चम्मच के बजाय हाथों से खाना
चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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अभी-अभी नाश्ता किया, आज भी चम्मच के बजाय हाथों से खाना
चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
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क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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अभी-अभी नाश्ता किया, आज भी चम्मच के बजाय हाथों से खाना
चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
©Mridula Rajpurohit✍️
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अभी-अभी नाश्ता किया, आज भी चम्मच के बजाय हाथों से खाना
चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
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इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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अभी-अभी नाश्ता किया, आज भी चम्मच के बजाय हाथों से खाना
चाहती थी, पंरतु बाहर असभ्य कहे जाने के भय से आदत छोड़ने की पहल समझे या मम्मी-बहिन की टोका-टाकी, मजबूरन चम्मच का प्रयोग उचित लगा ।
क्या पहले जब भारतीय परंपरा में हाथों से ही भोजन का रिवाज था, तब सभ्यता की परिभाषा क्या भिन्न हुआ करती थी ? भई ! खाने का असली मजा तो हाथों से खाने में ही है। अन्यथा, 'अंगुलियाँ चाटते रह जाना' का मुहावरा लोक व्यवहार में कहाँ स्थान पाता ।
इतना सब होते हुए भी, मैं न जाने क्यों चम्मच से खा रही थी, जबकि संतुष्टि का भाव ही हाथों से खा कर चटकारे लेने में है ।
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