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संदूक
बहोत पुराना सा वो संदूक...आज भी घर के किसी कोने में...एक भूली बिसरी याद की तरह पड़ा है। घर का वही पुराना सा कोना जहां कुछ समय पहले तक सारा परिवार जमा रहता था। आज तो कोई उस कोने को झांकता तक नहीं।
किसी समय पर वो कोना, मेरे दादा जी का कमरा हुआ करता था। उस समय घर के उसी कोने से ज़ोर ज़ोर से हंसी-ठहाकों की आवाज़ आया करती थी।
आज कईं सालों बाद उस खत में उस चाबी को देख, वो पुरानी सी टीस आज फिर दिल में ज़िंदा हो उठी।
आज पूरे 10 साल के बाद मैं उसी जगह खड़ी थी जहां मैंने अपने जीवन के सबसे सुनहरे पलों को जिया था...मेरे...बचपन के पलों को जिया था।
दिल में जैसे एक सैलाब सा आ गया था उन पुरानी यादों का। काफी असमंजस में घिरा था मेरा मन इस समय। मैं देखना चाहती थी मेरे दादा के उस संदूक को लेकिन हिम्मत थी कि साथ ही नही देना चाह रही हो। काफी देर तक मैं उस संदूक को एक टक देखती रही। फिर जैसे तैसे हिम्मत जुटा मैंने वो संदूक खोल ही लिया।
संदूक के खुलते ही मेरे सामने मेरा और मेरे दादा जी का एक पुरानी सी तस्वीर आ गई। मैं यही कुछ 10 साल की रही होंगी उस समय।
उस संदूक में ऐसी ढेरों यादें ना जाने कबसे कैद कर रखी थी उन्होंने। मेरे बचपन के कपड़े, उनकी छड़ी, दादी से छुपकर खाई हुई मिठाई के खाली ड़ब्बे और ना जाने क्या क्या।
एक बार फिर मैं अपने बचपन में चली गई थी उन यादों के सहारे। एक बार फिर...मैं जी गई थी अपने जीवन के उन सुनहरे पलों को जो मैंने अपने दादा जी के साथ बिताए थे।।
© unnati