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✨आलोक ✨

जब चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा हो , बस अंधेरा ही अंधेरा... धुप्प अंधेरा ! ऐसा प्रतीत होता है कि अंधेरे के शिवाय इस सृष्टि में और कुछ है ही नहीं । यह अंधेरा ही अब नियती है । इतने सशक्त और गहरे काले अंधेरे को आखिर कौन चुनौती दे सकता है ? इसका अस्तित्व ही अब स्वीकार करना ही होगा । अंधेरा निश्चिंत,मगरूर , बैखौफ है - कौन उसका क्या बिगाड़ सकता है ?

तभी आलोक की एक नन्ही सी किरण झिझकते - सकुचाते अंधेरे के विस्तृत, एकछत्र साम्राज्य में प्रवेश कर जाती है । किसी को भी उसका किंचित मात्र भी गुमान नहीं होता है न ही कोई उसे महत्व ही देता है । कुछ पल‌ और गुजरते हैं और आलोक की इस नन्ही सी किरण से कुछ और किरणें उभरती है । अंधेरा अब भी अपने अहंकार में चूर नजर आता है । इन छोटी - मोटी तुच्छ ‌किरणों की उसे क्या पड़ी है ?

पर‌ यह देखते ही देखते , आलोक की यह नन्ही सी किरण जिसका कोई अस्तित्व नहीं था तेजी से फैलती जाती है । अंधेरा ‌हतप्रभ है । यह क्या ? यह कैसे संभव है ? देखते ही देखते चारों ओर आलोक ‌पसर जाता है और अंधेरा नेस्तनाबूद हो जाता है । मानों जैसे उसका कभी कोई अस्तित्व था ही नहीं!

यकीन मानिए कभी - कभी निराशा रूपी ऐसा ही अंधेरा हमारे मानस पर कुछ इस कदर हावी हो जाता है कि हमें यही प्रतीत होता है कि इस अंधेरे के शिवाय और किसी और चीज का अस्तित्व है ही नहीं । पर वास्तविकता यह है कि उस मनोस्थिति में आवश्यकता है यह समझने कि की कितना भी धुप्प अंधेरा क्यों न हो उसका अंत तो होना ही है बस जरूरत है आलोक के एक नन्ही सी किरण की .....

© aum 'sai'

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