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जो है जैसा है
*"जो है जैसा है - के ज्ञान को समझने की समस्या"*

"जो है जैसा है - के ज्ञान की तथ्यपरक और सत्यपरक समझ की कमी की समस्या का निदान कैसे हो"

प्राय: ऐसा होता है कि बहुत से व्यक्तिगत, परिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय कठिनाइयों के संदर्भ में बहुत से विषयों के बारे में, बहुत सी परिस्थितियों के बारे में अच्छे अच्छे समझदार होशियार पुरुष भी केवल अपनी अपनी व्याख्याओं को करने में ही व्यस्त रहते हैं। उनकी व्याख्याओं में तथ्य तो लोप ही हो जाता है। व्याख्याओं के बाद व्याख्या, निरंतर व्याख्याओं के चक्कर में तथ्य (फैक्ट) का नामोनिशान नहीं रहता है।

इन व्याख्याओं के दुष्चक्र को जरा समझने का प्रयास करें। जिस भी चीज को या जिस भी परिस्थिति को या जिस भी आत्मा को या जिस भी कठिनाई को जब हम देखते हैं (अपने अनुसार समझते हैं) उसको हम उसके शुद्ध रूप में (वह जो है जैसी है) उसके वास्तविक शुद्ध रूप में नहीं देख सकते हैं। उसके शुद्ध रूप में देखना असंभव है। क्योंकि उसमें देखने वाले की दृष्टि (व्याख्या) समाविष्ट हो ही जाती है। जैसे उदाहरण के तौर पर:- एक वृक्ष आपके सामने है। उस वृक्ष को जब कोई भी व्यक्ति देखता है तो वह उस वृक्ष को ठीक वैसा ही नहीं देख सकता है जैसा कि वह वृक्ष वास्तव में है। वृक्ष को देखने (समझने में) में उस व्यक्ति की अपनी व्याख्या (दृष्टि) समाविष्ट हो जाती है। मनोविज्ञान कहता है कि किसी भी विषय वस्तु के लिए किसी भी व्यक्ति की व्याख्या का समाविष्टिकरण हो जाना लाजमी है। कोई भी आत्मा किसी भी चीज (कार्य, वस्तु, परिस्थिति, व्यवहार इत्यादि) को बिना व्याख्या के देख ही नहीं सकती है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य और सत्य है। इसलिए हमारे किसी भी विषय की चर्चाओं या बातों में अक्सर 99.9% हमारी खुद के मन की व्याख्याएं ही होती हैं। कभी कभी किसी किसी मामले में ही यह कहा जा सकता है कि उनमें तथ्य और सत्य तो ऐसा समझो जैसे आटे में नमक के समान ही हो। लेकिन अधिकांश मामलों में तो हमारी व्याख्याएं केवल व्याख्याएं ही रहती हैं। उनमें तथ्य या सत्य तो आटे में नमक के समान भी नहीं रहता है।

वैज्ञानिक भी इस बात को समझने और मानने लगे हैं कि हमने जो भी कहा है या हम जो भी कहते हैं उसमें हमारी व्याख्यायें ही ज्यादा से ज्यादा हैं। उसमें तथ्य तो अत्यन्त अल्प ही है। व्याख्या करने वालों की अक्सर समस्या यह भी रहती है कि वे अपनी व्याख्याओं को ही ज्ञान समझ लेते हैं। लेकिन वह ज्ञान वास्तव में ज्ञान नहीं होता है जिसमें तथ्य और सत्य का नामनिशान ही ना हो। वह केवल शब्दों को व्यवस्थित करना मात्र है। वह अधूरा ज्ञान होता है जो अज्ञान से भी ज्यादा नुकसान कारक होता है।

इसलिए किसी व्यवस्था विशेष में या किसी अवस्था विशेष में या किस आस्था विशेष में या किसी विषय वस्तुस्थिति के समाधान विशेष में या किसी प्रेरक प्रसंग की व्याख्या विशेष में जब भी हमें अपनी कुछ व्याख्या करनी हो, तो इस बात का भी अवश्य ध्यान रखें कि यह केवल मेरी कोरी व्याख्या ही है या यह तथ्यात्मक भी है? क्या यह केवल और केवल मेरे मन से निकली हुई व्याख्या ही है या यह तथ्य और सत्य भी है? तथ्य और व्याख्या में बहुत बड़ा फर्क होता है। हमारा पूरा ध्यान तथ्य केंद्रित हो। यदि हमारा पूरा ध्यान व्याख्या केंद्रित ही होगा तो वह प्रक्रिया केवल वैसी ही होती है जैसे कि "नौ दिन चले ढाई कोस" - Running two and half miles only in nine days. वह व्याख्या की जो प्रक्रिया होती है वह थोथे कारतूस को हवा में चलाने की भांति होती है। केवल व्याख्या केंद्रित प्रयास या कर्म दूर से देखने में तो ऐसा लगता है जैसे कि मानो कि बहुत कुछ किया जा रहा है या करने वाला बहुत कुछ कर रहा है। करने वाले को भी ऐसा लगता है कि मैं बहुत कुछ कर रहा हूं। लेकिन उस करने का परिणाम जीरो ही होता है। कठिनाइयों को सरल बनाने के लिए, समस्याओं को समाधान बनाने के लिए तथ्यपरक होने की योग्यता और सत्यपरक अनुभूति की योग्यता होनी चाहिए। तथ्यों और सत्यों पर काम किए बिना मात्र व्याख्याएं तो केवल हवाओं में तैरने का ही काम किया करती हैं। बुद्धिमान आत्मा वही है जो व्याख्या विस्तार को समझ कर तथ्य को समझ ले। तथ्य को समझने वाली आत्माओं के लिए यह जरूरी नहीं है कि वे विस्तार व्याख्या को भी समझ लेते हैं। लेकिन जो विस्तार व्याख्या को समझ लेने वाली आत्माएं होती हैं वे अवश्य ही तथ्य को भी समझ लेती हैं। इसलिए सिर्फ व्याख्या ही मत करते रहिए। तथ्य को भी समझिए। क्योंकि तथ्य हमेशा ही सत्य के निकट होता है। जो तथ्य सत्य के निकट है वह व्याख्याओं से दूर है। तथ्य को समझने से समस्याएं तो यूं ही आती हैं और यूं ही प्रभावहीन बनकर चली जाती हैं। यह मानो गागर में सागर है, इसे ऐसा समझना। 🙏👌☀️🤏🙏