...

5 views

पराया धन
हमारे समाज में जहां पुरुष की प्रधानता है स्त्री की स्थिति पैदल सैनिक जैसी है जो युद्ध स्थल में सबसे आगे रहता है और शौर्य पदक प्राप्ति में जरा पीछे ही रहता है
सन्तान को जन्म देने की पीड़ा से लेकर जीवन पर्यन्त सन्तान के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के बाद भी बाजी पुरुष के हाथ में रहती है सन्तान न होने पर बांझ का ठिकरा स्त्री के माथे फोड़ा जाता है ।पुत्र न होने पर भी जिम्मेदार तो स्त्री ही होती है।
बच्चे कोई गलत काम कर दे तो सुनिए
"जैसी मां वैसी औलाद"। बेटी गृह कार्य में दक्ष न हो तो "मां पर गई है उसे ही क्या आता है"सन्तान अच्छी न निकलें,कुल के अनुसार न चले "मां ने यही सिखाया है"।
बेटा बेटी पढ़ाई-लिखाई में, खेल कूद में कुछ अच्छा कर जाएं "अजी बेटी/बेटा किसका है कुलवंत सिंह या किसी भूषण अग्रवाल आदि आदि का।
सन्तान का परिचय उसे जन्म देने वाली,तन, मन, धन से दिन रात एक कर देने वाली मां का नहीं अपितु पिता के नाम कुल गोत्र आदि से हुआ करता है।
इस पुरुष प्रधान समाज ने स्त्री को देवी
माना या दानवी माना मानवी तो कभी स्वीकार ही नहीं किया।उसे त्याग बलिदान के तमगे दिये। इन्हीं तमगों की आड़ में उससे उसकी सहजता, सरलता और तमाम अधिकार छीन लिए।
विद्यालय में प्रवेश से लेकर नौकरी के आवेदन तक,सात फेरों से लेकर सन्तान के जन्म तक और जन्म तक ही क्यों अन्तिम यात्रा तक पुरुष का ही नाम चलता है ।
स्त्री का कोई घर नहीं होता क्योंकि वह तो "पराया धन"होती है। बचपन मे पिता के मार्गदर्शन में चलती है, कुछ बड़ी होती है तो भाईयों की निगरानी में रहती है,विवाहोपरांत पति की सम्पत्ति होती है, वृद्धावस्था में पुत्रों के अधीन होती है।
कितना ही जमाना बदल गया, कितना ही पानी पुलों के नीचे से गुजर गया, और कितने ही विकास के सोपान पार कर लिये हों नारी की स्थिति में कुछ विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है ।
© सरिता अग्रवाल