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#काली कुर्सी
#काली कुर्सी
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"भईया इस कुर्सी की क्या कीमत है बताना जरा।"
"किस कुर्सी की, इसकी...!"
पास पड़ी कुर्सी के तरफ़ इशारा करते हुए, नंद ने कहा।
नंद इस दुकान में काम करने वाला एक मुलाज़िम है।
तभी सरिता ने कहा..."नही भईया ये वाली नहीं, ये वाली तो मेरे बाबू जी को पसंद ही नहीं आएगी। उनका पसंदीदा रंग काला है, मुझे वो वाली कुर्सी चाहिए। दूर पड़े शीशे के उस पार पड़ी आलीशान काली कुर्सी, किसी राजा की सिंहासन सी जान पड़ रही थी......
"वो... अरे वो कुर्सी तो मालिक ने बस शो के लिए रख रखी है । वह बेचने के लिए नहीं है ।" नंद ने सरिता से कहा ।
"पर मुझे अपने बाबू जी के लिए वही काली कुर्सी लेनी है ।" सरिता
भी ज़िद पर अड़ गई ।
"मालिक अभी हैं नहीं जब वो आ जाएँ तब उन्हीं से बात करनी होगी आपको ।" नंद बोला ।
सरिता इंतज़ार करने लगी । उसने इरादा कर लिया था कि मालिक से मिल कर कुर्सी को लेकर ही जाएगी ।
लगभग डेढ़ घंटे का इंतज़ार करने के बाद मालिक आया । वह एक 45-50 की उम्र का संभ्रांत सा आदमी था । उसने सरिता से बड़ी विनम्रता और आदरपूर्वक बात की ।
सरिता ने उस शानदार काली कुर्सी को अपने पिताजी जिन्हें वह बाबूजी कहती थी, के लिए खरीदने की इच्छा जता दी ।
"आपकी भावनाओं का हम आदर करते हैं । किंतु हम आपको वह कुर्सी नहीं बेच सकते ।"
मालिक ने विनम्रता पूर्वक कहा ।
"लेकिन क्यों ?" सरिता ने पूछा ।
"वह एक रहस्य है जो हम आपको नहीं बता सकते....!"
सरिता को बड़ी हताशा हुई । वह निराश मन के साथ घर लौट आई लेकिन उसका सुकून तो जैसे उस कुर्सी के साथ ही रह गया था ।
फ़िर तो जैसे सरिता के सुख-चैन को किसी की नज़र लग गई ।
रात को सोती तो पहले तो नींद ही न आती और आती तो वह कुर्सी उसके सपनों में आती । कभी उस पर उसके बाबूजी,कभी दुकान का मालिक तो कभी वह ख़ुद उस कुर्सी पर बैठी होती । कुर्सी का मालिक अट्टहास कर रहा होता तो बाबूजी रो रहे होते और वह ख़ुद दुकान मालिक से कुर्सी उसे बेच देने की गुहार कर रही होती ।
यही सिलसिला चल रहा था । महीना बीतते-बीतते सरिता की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी । अंत में जब न रहा गया तो सरिता फ़िर उसी दुकान पर जा पहुँची ।
दुकान बंद थी । लगातार एक हफ़्ता चक्कर लगाने पर आख़िर एक दिन दुकान खुली मिली । सरिता आश्चर्यचकित रह गई । काली कुर्सी शोकेस में अपनी जगह पर नहीं थी ।
"मैंने इतना कहा था फ़िर भी आपने मुझे कुर्सी नहीं बेची लेकिन किसी और को बेच दी । इसकी वजह....!" उसे गुस्सा आ रहा था ।
"आपको मालूम नहीं बहनजी लेकिन जिस दिन आप गईं थीं उसी की अगली रात को ही दुकान से कुर्सी चोरी हो गई थी । और चोरी करने वाला उसे साथ भी नहीं ले गया था । दुकान के बाहर ही उसमें आग लगा गया था ।"
"हमें तो सुबह राख पड़ी मिली ।" दुकान मालिक बता रहा था ।
"हम तो सोच रहे थे कि इससे अच्छा हम आपको बेच ही देते वह कुर्सी.....!" मालिक कह रहा था ।
सरिता को सुन कर बड़ा अजीब लगा ।
उसे निश्चितता हुई कि 'अच्छा हुआ उसने नहीं ख़रीदी वह मनहूस कुर्सी.....!'
सरिता घर वापस आ गई । उसकी बेचैनी और सपने भी अब ख़त्म हो गए थे ।
कुर्सी का रहस्य जानने की उसकी उत्सुकता भी ख़त्म हो गई थी ।


© Geeta Yadvendu