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अस्तित्व
बड़ी हसरतों वह हजारों सपनों को संजोए अराधना ससुराल पहुंची। न जाने मायके वालों को अचानक कैसे भूला दी। समय जैसे पंख लगाकर उड़ान भर रहा था। पति-पत्नी के रिश्ते को समझने में दिन गुजर रहा था।सांस की सेवा में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बीच-बीच में जेठानी ताना मार फोन ही में कहा देती कितना भी पैरों में तेल मालिश करो सब व्यर्थ। अराधना का कोमल मन में इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
समय बीतता गया। सासुमा तीर्थ यात्रा का योजना बनाने लगी। दोनों बेटियां मिलने आई। अराधना काम के बोझ से दब गई।
दोपहर का समय था। मां अपनी बेटियों के साथ गप्पे लड़ाने में व्यस्त थी। अराधना गेहूं सुखाने के लिए सीढ़ी पर चढ़ ही रही थी कि उसके कानों में सासुमा की आवाज आई ,"देखो बिटिया मैं तो जाने कब लौटूंगी, इसलिए मेरे सारी ज़ेवरों का बंटवारा तुम दोनों बहनों को कर देना चाहतीं हूं। क्या जाने बहू मेरे बाद इन गहनों पर अपना अधिकार न जमा लें।। मुझे प्यारे पर भरोसा नहीं। दोनों बिटिया भी हां में हां मिलाने में लग गए। अराधना को अभी ये अहसास हुआ कि आज भी वह अपनों के बीच पराई है। उसके सारे सपने टूटते गए। वह पतिदेव से जाकर अपने हैसियत की चर्चा की तो उसे यह कहकर मुंह बंद कर दिया गया यह हर घर की। कहानी है, तुम्हें रहना है तो इसे आजमाना पड़ेगा आगे तुम्हारे लिए दरवाजा खुला है। आज अराधना अपनी अस्तित्व समझ गई।
रीता।