श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
"श्रीकृष्णजन्माष्टमी"-इस शब्द से कुछ स्मरण हुआ? अरे जिसे आप हर वर्ष श्रीकृष्ण वासुदेव जी के जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं। पर आज तक बहुत कम ही लोग "श्रीकृष्णजन्माष्टमी" का महत्व समझ पाए हैं।
क्या ऐसा नहीं हुआ है?
आप अपने आसपास दृष्टि डालिए-
●कहीं कोई श्रीकृष्ण वासुदेव जी का भेष धारण कर माखन भरी मटकी फोड़ रहा है,
●कहीं कोई झाँकियाँ लगाकर झूले झूला रहा है,
●और कोई बच जाता है तो वो,प्रवचन और सत्संग के नाम पर-"हरे कृष्णा हरे कृष्णा" या "राधे-राधे" का उच्चारण कर रहे हैं।
(वास्तव में सब श्रीकृष्ण बनने का या स्वयं को उनके मार्ग पर चलाने का छल भर मात्र ही कर रहे हैं स्वयं से।)
हम "श्रीकृष्णजन्माष्टमी" के वास्तविक मूल को तो समझ ही नहीं पाए।
"श्रीकृष्णजन्माष्टमी" अर्थात् अधर्म के विनाश हेतु धर्म की स्थापना का रखा गया प्रथम चरण।
नहीँ?
अरे श्रीकृष्ण वासुदेव जी ने स्वयं ये वचन दिया है-
"यदा यदा हि धर्मस्य,ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनां,विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय,सम्भवामि युगे युगे।।"
अर्थात्
{जब-जब धर्म को हानि होती है,जब-जब अधर्म में वृद्धि होती है
तब-तब साधुओं के उद्धार के लिए,अधर्मियों के विनाश के लिए और धर्म की पुनः स्थापना के लिए
मैं ही जन्म लेता हूँ,ये प्रत्येक युग में होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा।}
स्वयं का संपूर्ण परिचय देते हुए श्रीकृष्ण वासुदेव जी ने आगे यह भी कहा-
मेरे प्रति समर्पण ही ईश्वर के प्रति समर्पण है। सारे संसार का त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ,मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा।
{मैं ही संसार हूँ,मैं संसार का प्रत्येक कण हूँ,मैं ही सूर्य हूँ और मैं ही चंद्र भी। मैं ही नक्षत्र हूँ और मैं ही सभी ग्रह। मैं सूर्य से भी अधिक पुरातन हूँ और किसी वृक्ष पर खिली कली से भी नया। मैं ही सारे मनुष्य हूँ और मैं ही सभी पशु-पक्षी जीवजंतु भी। मैं ही स्वर्ग और नरक को धारण करने वाली शक्ति हूँ। मैं ही अविनाशी परमात्मा हूँ। मैं ही "मत्स्य" भी था और मैं ही "वामनावतार" भी। मैं ही "रामचन्द्र" भी था और मैं ही परशुराम भी। मैं ही "ब्रह्मा-विष्णु-महेश" हूँ और मैं ही "सरस्वती-काली-लक्ष्मी" भी। मैं ना पुरुष हूँ ना स्त्री हूँ और ना ही नपुंसक। मैं ना शरीर हूँ ना शरीर के अंग हूँ। मैं ज्ञान हूँ,सृष्टि हूँ,चैतन्य हूँ और परब्रह्म हूँ। मैं सबकुछ हूँ और मैं कुछ भी नहीं।"
मेरे अनेक जन्म हुए हैं,अनेकों अवतार धारण किए हैं मैंने। कई शरीर बने हैं मेरे और इसी मिट्टी में मिले हैं।
"और आगे भी मैं बार-बार जन्म लूँगा।"}
श्रीकृष्ण मटकी फोड़ते थे,कंस द्वारा माखन का उपभोग रोकने के लिए और आज हम मटकी फोड़ रहे हैं,उसकी बर्बादी करने के लिए। इतना माखन भूमि पर गिरकर सड़ जाता है,ये माखन मटकी के स्थान पर यदि भूखे को खिलाया जाए,तो स्वयं ईश्वर आकर हम सभी के सखा बन जाएँ।
झाँकियाँ देखने और झूला झुलाने के स्थान पर हम अपने मन को झुलाएँ और उसकी चंचलता को निकालकर उनके मार्ग पर चलने का प्रयास मात्र भी कर ले तो भी दर्शन दूर नहीं।
"हरे कृष्णा हरे कृष्णा" या "राधे-राधे" जैसे शुरू और अंत होने वाले शब्दों का उच्चारण करने के स्थान पर हम उस परम नाम का उच्चारण करे जिसका ना आदि,ना मध्य और ना ही अंत है,जो अजपा है,अविनाशी है,जिसे जानने के बाद और कुछ भी शेष नहीं रह जाता,
जिसका ज्ञान कुरुक्षेत्र की रणभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य में श्रीकृष्ण वासुदेव जी ने अर्जुन को कराया,वो राजविद्या जो सभी विद्याओं की राजा है,उसे जानना ही हम सभी मनुष्यों का परम लक्ष्य है।
(अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप "श्रीकृष्णजन्माष्टमी" मटकी फोड़ कर,झाँकियाँ देखकर या "हरे कृष्णा हरे कृष्णा" "राधे-राधे" करके मनाना चाहते हैं
या
अधर्म के विरूद्ध धर्म का प्रथम बीज अपने हृदयँ में रोपित करना चाहते हैं।)
समय मिले तो मंथन अवश्य कीजिएगा।
आप सभी को और आपके परिवार जनों को "श्रीकृष्णजन्माष्टमी" की हार्दिक शुभकामनाएँ।
© beingmayurr
क्या ऐसा नहीं हुआ है?
आप अपने आसपास दृष्टि डालिए-
●कहीं कोई श्रीकृष्ण वासुदेव जी का भेष धारण कर माखन भरी मटकी फोड़ रहा है,
●कहीं कोई झाँकियाँ लगाकर झूले झूला रहा है,
●और कोई बच जाता है तो वो,प्रवचन और सत्संग के नाम पर-"हरे कृष्णा हरे कृष्णा" या "राधे-राधे" का उच्चारण कर रहे हैं।
(वास्तव में सब श्रीकृष्ण बनने का या स्वयं को उनके मार्ग पर चलाने का छल भर मात्र ही कर रहे हैं स्वयं से।)
हम "श्रीकृष्णजन्माष्टमी" के वास्तविक मूल को तो समझ ही नहीं पाए।
"श्रीकृष्णजन्माष्टमी" अर्थात् अधर्म के विनाश हेतु धर्म की स्थापना का रखा गया प्रथम चरण।
नहीँ?
अरे श्रीकृष्ण वासुदेव जी ने स्वयं ये वचन दिया है-
"यदा यदा हि धर्मस्य,ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनां,विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय,सम्भवामि युगे युगे।।"
अर्थात्
{जब-जब धर्म को हानि होती है,जब-जब अधर्म में वृद्धि होती है
तब-तब साधुओं के उद्धार के लिए,अधर्मियों के विनाश के लिए और धर्म की पुनः स्थापना के लिए
मैं ही जन्म लेता हूँ,ये प्रत्येक युग में होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा।}
स्वयं का संपूर्ण परिचय देते हुए श्रीकृष्ण वासुदेव जी ने आगे यह भी कहा-
मेरे प्रति समर्पण ही ईश्वर के प्रति समर्पण है। सारे संसार का त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ,मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा।
{मैं ही संसार हूँ,मैं संसार का प्रत्येक कण हूँ,मैं ही सूर्य हूँ और मैं ही चंद्र भी। मैं ही नक्षत्र हूँ और मैं ही सभी ग्रह। मैं सूर्य से भी अधिक पुरातन हूँ और किसी वृक्ष पर खिली कली से भी नया। मैं ही सारे मनुष्य हूँ और मैं ही सभी पशु-पक्षी जीवजंतु भी। मैं ही स्वर्ग और नरक को धारण करने वाली शक्ति हूँ। मैं ही अविनाशी परमात्मा हूँ। मैं ही "मत्स्य" भी था और मैं ही "वामनावतार" भी। मैं ही "रामचन्द्र" भी था और मैं ही परशुराम भी। मैं ही "ब्रह्मा-विष्णु-महेश" हूँ और मैं ही "सरस्वती-काली-लक्ष्मी" भी। मैं ना पुरुष हूँ ना स्त्री हूँ और ना ही नपुंसक। मैं ना शरीर हूँ ना शरीर के अंग हूँ। मैं ज्ञान हूँ,सृष्टि हूँ,चैतन्य हूँ और परब्रह्म हूँ। मैं सबकुछ हूँ और मैं कुछ भी नहीं।"
मेरे अनेक जन्म हुए हैं,अनेकों अवतार धारण किए हैं मैंने। कई शरीर बने हैं मेरे और इसी मिट्टी में मिले हैं।
"और आगे भी मैं बार-बार जन्म लूँगा।"}
श्रीकृष्ण मटकी फोड़ते थे,कंस द्वारा माखन का उपभोग रोकने के लिए और आज हम मटकी फोड़ रहे हैं,उसकी बर्बादी करने के लिए। इतना माखन भूमि पर गिरकर सड़ जाता है,ये माखन मटकी के स्थान पर यदि भूखे को खिलाया जाए,तो स्वयं ईश्वर आकर हम सभी के सखा बन जाएँ।
झाँकियाँ देखने और झूला झुलाने के स्थान पर हम अपने मन को झुलाएँ और उसकी चंचलता को निकालकर उनके मार्ग पर चलने का प्रयास मात्र भी कर ले तो भी दर्शन दूर नहीं।
"हरे कृष्णा हरे कृष्णा" या "राधे-राधे" जैसे शुरू और अंत होने वाले शब्दों का उच्चारण करने के स्थान पर हम उस परम नाम का उच्चारण करे जिसका ना आदि,ना मध्य और ना ही अंत है,जो अजपा है,अविनाशी है,जिसे जानने के बाद और कुछ भी शेष नहीं रह जाता,
जिसका ज्ञान कुरुक्षेत्र की रणभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य में श्रीकृष्ण वासुदेव जी ने अर्जुन को कराया,वो राजविद्या जो सभी विद्याओं की राजा है,उसे जानना ही हम सभी मनुष्यों का परम लक्ष्य है।
(अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप "श्रीकृष्णजन्माष्टमी" मटकी फोड़ कर,झाँकियाँ देखकर या "हरे कृष्णा हरे कृष्णा" "राधे-राधे" करके मनाना चाहते हैं
या
अधर्म के विरूद्ध धर्म का प्रथम बीज अपने हृदयँ में रोपित करना चाहते हैं।)
समय मिले तो मंथन अवश्य कीजिएगा।
आप सभी को और आपके परिवार जनों को "श्रीकृष्णजन्माष्टमी" की हार्दिक शुभकामनाएँ।
© beingmayurr