दोस्ती का सफर
वैसे बचपन से ही यूं तो जीवन के सफर में मेरे अनेक दोस्त बने। मगर जैसे-जैसे समय गुजरता गया , वैसे-वैसे नये दोस्त बनते गए और पुराने साथी बिछुड़ते गये।
किंतु मेरे अब तक के सफर में मेरा प्यारा दोस्त सुरज रहा। जिसने मेरी हर विकट परिस्थिति में साथ दिया।
बचपन में, हम जिस सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। उसमें सुरज मुझसे एक कक्षा आगे पढ़ता था । मगर बाद में वह एक कक्षा में फेल हो जाने से हम दोनों साथ साथ हो गये।
स्कूल में भी जब पढ़ने जाते तो खेल घण्टी होने से पहले ही मोहल्ले में एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे आकर उसकी जड़ों पर बैठ जाते। जिस दिन स्कूल जाने का मन नहीं होता था, उस दिन घर से घरवालों की डांट से घर से तो स्कूल की यूनिफॉर्म पहन कर निकल आते । किंतु वहीं बरगद की जड़ों पे जाकर या खेतों में जाकर छुपन-छुपाई खेल रहे होते। और फिर स्कूल की छुट्टी का समय होते ही अपना बैग लगाकर घर की और चल पड़ते।
हम दोनों की शुरू से ही काफी बनती थी। अतः हम गांव में आसपास के बच्चों की मित्रमंडली बनाकर गिल्ली-डंडा खेलने जाते थे।
यौवन के इसी पड़ाव में हमारी दोस्ती गहरी हो गई ।
इसके बाद हम अब बड़े हो गए तो भी हम एक-दूसरे के सारथी बन कर काम आये।
अभी कुछ साल पहले की बात है , जिस दिन मैं सुरज के पास रुका था। मुझे घर जाना था और मेरे पास पैसे भी कम थे। तब सुरज ने मेरी मदद की।
किंतु इतना ही नहीं वह अब भी मुझे जब भी किसी भी संकट में होता हूं , मेरी हरसंभव सहायता करता है। वह मेरा सबसे अच्छा दोस्त है।
इसलिए आज मेरी और सुरज की दोस्ती एक अटूट विश्वास पर बरकरार है।
किंतु मेरे अब तक के सफर में मेरा प्यारा दोस्त सुरज रहा। जिसने मेरी हर विकट परिस्थिति में साथ दिया।
बचपन में, हम जिस सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। उसमें सुरज मुझसे एक कक्षा आगे पढ़ता था । मगर बाद में वह एक कक्षा में फेल हो जाने से हम दोनों साथ साथ हो गये।
स्कूल में भी जब पढ़ने जाते तो खेल घण्टी होने से पहले ही मोहल्ले में एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे आकर उसकी जड़ों पर बैठ जाते। जिस दिन स्कूल जाने का मन नहीं होता था, उस दिन घर से घरवालों की डांट से घर से तो स्कूल की यूनिफॉर्म पहन कर निकल आते । किंतु वहीं बरगद की जड़ों पे जाकर या खेतों में जाकर छुपन-छुपाई खेल रहे होते। और फिर स्कूल की छुट्टी का समय होते ही अपना बैग लगाकर घर की और चल पड़ते।
हम दोनों की शुरू से ही काफी बनती थी। अतः हम गांव में आसपास के बच्चों की मित्रमंडली बनाकर गिल्ली-डंडा खेलने जाते थे।
यौवन के इसी पड़ाव में हमारी दोस्ती गहरी हो गई ।
इसके बाद हम अब बड़े हो गए तो भी हम एक-दूसरे के सारथी बन कर काम आये।
अभी कुछ साल पहले की बात है , जिस दिन मैं सुरज के पास रुका था। मुझे घर जाना था और मेरे पास पैसे भी कम थे। तब सुरज ने मेरी मदद की।
किंतु इतना ही नहीं वह अब भी मुझे जब भी किसी भी संकट में होता हूं , मेरी हरसंभव सहायता करता है। वह मेरा सबसे अच्छा दोस्त है।
इसलिए आज मेरी और सुरज की दोस्ती एक अटूट विश्वास पर बरकरार है।
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