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"काला हार" भाग -४ (अंतिम भाग)
पल्लवी ने जब किताब का पहला पृष्ठ खोला तो प्रथम से लेकर अंतिम पृष्ठ तक पल्लवी को वो रहस्य पता चला जो अब से पहले केवल अतीत के गर्भ में ज़ब्त थी। जो कुछ पल्लवी ने पढ़ा उसका सार इस प्रकार है:- मैं अनुपमा इस घर की बहू आज इस घर की एक अंधेरी कोठरी में बैठी ये किताब लिख रही हूं क्या करूं बाहर बैठ कर मैं ये सब नहीं लिख सकतीं लेकिन इस घर के हर एक राज़ से मैं आज पर्दा उठाना चाहती हूं। मेरा विवाह इस शहर के नामचीन ज़मींदार त्रिलोकीनाथ चौहान के पुत्र चित्रंमवद के साथ १९२४ को हुआ था। ससुराल में मुझे किसी वस्तु की कोई कमी नहीं थी,मैं बेहद सुखद और वैभवशाली जीवनशैली में जिन्दगी गुजार रही थी। एक वर्ष उपरांत मुझे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और मेरा एकांकी जीवन पुत्र के लालन-पालन में व्यतीत होने लगा। इस बीच मैंने कई बार ये देखा कि मेरे पति अक्सर रात को देर से आते थे और कई बार तो आते ही नहीं थें, मैंने जब जब उनसे ये पूछने की चेष्टा की वो टाल दिया करते थे।
लगभग एक वर्ष पश्चात एक रात मैंने उन्हें शराब में धुत्त होकर घर आते देखा तो मुझे बहुत क्रोध आया लेकिन अपने क्रोध को पीकर मैं उन्हें कमरे में ले गई और लिटा दिया। दूसरे दिन मैंने इस बाबत जब अपनी सास से सबकुछ कहा तो वो शांत स्वर में बोली बेटी ये तो इन ठाकुर जमींदार घरों की परम्परा है यहां के मर्द जब तक तवायफों के कोठे से नशें में धुत्त होकर नहीं आते उनकी शान घटती है, पत्नी तो उनके लिए केवल एक वर्ष तक ही प्रिया है फिर तो इनका ज्यादातर समय वही गुजरता है..... सुनकर मैं मानों काठ सी हो गई, मैंने अपनी सास से पूछा तो क्या पिताजी भी......? हां बेटी वो भी ऐसा ही करते आएं हैं और आज तक करते हैं,दिन तो इनका जमींदारी में और रात जनाना कोठे में गुजरता है। सास दुखद स्वर में बोली दुनियां के लिए तो हम महारानियों से कम नहीं क्योंकि मंहगी से मंहगी साड़ियां और असीमित ज़ेवर महंगे-महंगे इत्र और दूसरी तमाम सुख-सुविधाएं की वस्तुएं हमारे पास है,मगर जो नहीं है वो है पति का सानिध्य,उसका प्रेम और उसका अपनत्व..... कहते कहते वो चुप हो गई और अपने कमरे में चली गई। लेकिन मैंने ठान लिया मैं चुप नहीं बैठूंगी और उसी रात जब मेरे पति नशें में धुत्त होकर नौकरों का सहारा लेकर आए तो मैंने नौकरों से ही कहा कि उन्हें लेटा दें और मैं चुपचाप मुंह फेरकर सो गई। दूसरे दिन मैंने सुबह आसमान सर पर उठा लिया और उनसे जवाब तलब करने लगीं तो उन्होंने बड़े बेरूखी से जवाब दिया कि "देखो अब जब तुम्हें सबकुछ पता चल ही गया है तो तुम भी इस बात की आदत डाल लो क्योंकि यही हम जमींदारों की परम्परा है" मैं ऐसे घटिया परम्परा को नहीं मानतीं मैं चिल्ला उठी तो उन्होंने कहा तुम्हारे चिल्लाने से कुछ नहीं बदलेगा जो अब तक होता आया है आगे भी वही होगा और मेरी उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर वो कमरे से निकल गये और मैं रोती रह गई।
देखते देखते पांच वर्ष बीत गए और अब मैंने इनसे कोई भी उम्मीद रखना छोड़ दिया था हां अब मैं अपने पुत्र के साथ ही समय व्यतीत करने लगीं इस बीच मैंने अपने तमाम ज़ेवर अपने शरीर से उतार फेंके थे आखिर मैं संवरती भी तो किसके लिए? जब कोई देखने वाला ही नहीं था। जमींदारों की इस घटिया परम्परा से मैं आजिज आ चुकी थी।
एक बार मुझे अपनी एक दासी से मालूम हुआ के एक पहुंचे हुए सिद्ध तांत्रिक आएं हैं और उनका शिविर इसी शहर में लगा हुआ है। मैं किसी भी तरह उनसे मिलना चाहती थी इसलिए एक रात मैं दासी के साथ तांगे में बैठकर उस तान्त्रिक के यहां पहुंची , मुझे देखते ही तान्त्रिक सब कुछ जान गये और बोले तेरी व्यथा मैं जानता हूं लेकिन तू मुझसे क्या चाहती है? मैं बोली "बाबा अतिरिक्त धन कभी-कभी व्यक्ति को अंधा कर देती है। परम्पराओं के नाम पर अब तक जो होता आया है वो आगे मैं नहीं होने दूंगी कुछ ऐसा कीजिए कि ये धन-संपत्ति श्रापित हो जाएं और सारी जमींदारी नष्ट हो जाएं।
बाबा एकचित्त मुझे देखते रहे और बोले लेकिन इससे तुम्हें प्राणों का भी खतरा है, मैंने कहा बाबा अब जी कर भी क्या करूंगी? ठीक है तू कल आना इसी समय रात्रि को मैं तुम्हें एक सिद्ध वस्तु दूंगा बाबा बोले। मैं बाबा से आज्ञा लेकर चली आई। दूसरे दिन प्रातः ही मैंने अपने दोनों पुत्रों को उनके ननिहाल भेज दिया,सांस के पूछने पर मैंने उन्हें घूमने जाने का बता दिया।
मेरी सास बहुत अच्छी है इसलिए उस दिन मैं उनके गले लगकर खूब रोई क्योंकि इतना अनुमान तो मुझे भी हो चला था शायद अब कोई भी जीवित नहीं रहेगा।
उसी रात मैं अकेली ही बाबा के पास पहुंचीं बाबा ने मुझे एक सिद्ध माला दी जो काले मोतियों की थी, वो मुझसे बोलें ले इसे गले में पहन लें।इसे पहनते ही तेरे परिवार के पतन के दिन शुरू हो जाएंगे और ये पतन पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहेगी जब तक ये हार तेरे गले में है जिस दिन ये हार तेरे गले से उतरेगी तब पतन समाप्त हो वापस वैभवशाली जीवन आरंभ होगा। फिर मैंने पूछा और अगर मैं जीवित न रही तो? बाबा बोले सुन किसी चित्रकार से अपनी चित्र बनवाना और उसमें ये काला हार अवश्य पहनना,अगर तू तब तक जीवित न रही तो जो कोई इस चित्र को जला देगा तमाम संपत्ति फिर उसके पास आ जाएंगी। बाबा से हार लेकर मैं अपने हवेली में चली आई। हमारी हवेली बहुत ही बड़ी है इसमें तीन मंजिलें और एक गर्भगृह भी है जिसमें आमतौर पर अनाज और धन-संपत्ति रखें जाते हैं। दूसरे दिन सुबह मैंने अपनी सास से कहा कि मैं अपनी मां के यहां जा रही हूं,मगर मैं हवेली के गर्भगृह में चली गई वहां मैं अपने तमाम जेवरात और मूल्यवान वस्तुएं इत्र और मंहगी साड़ियां ले गई। जाने से पहले मैंने अपना एक चित्र स्वयं बना लिया था। मैंने चित्र को उस हॉल के मध्य में टांग दिया था। फिर मैंने वो माला पहन लिया। आते वक्त मैं एक कोरी कॉपी अपने साथ और कुछ खाने पीने का सामान भी ले आई थी।
आज इस गर्भगृह में पहला दिन है और मैं यहां तक लिख चुकीं हूं। बाकी कल लिखूंगी, फिर दूसरे दिन की दिनांक के साथ लिखा गया था आज मेरा दूसरा दिन है और मैं यहां बैठकर फिर से लिख रही हूं। मैंने अपने पुत्रों को ननिहाल इसलिए भेज दिया है ताकि वो इस श्राप से और ऐसी ओछी परम्पराओं से दूर रहें हर मां की भांति मैं भी अपने पुत्रों का भला चाहती हूं। फिर तीसरे, चौथे-पांचवें और फिर दसवें दिन लिखा गया था दिनांक १२.३.३२ आज दसवां दिन है ऊपर हवेली में क्या हो रहा है मैं नहीं जानती लेकिन मैं भी अब शिथिल पड़ने लगी हूं मेरा भोजन समाप्त हो चुका है पानी भी नहीं है,जब तक जीवित हूं लिखती रहूंगी। इस गर्भगृह में प्रवेश करने हेतु एक छोटी सी खिड़की से होकर आना पड़ता है, अगर कभी किसी को ये गर्भगृह दिखें और ये किताब भी मिले तो वो सबसे पहले मेरे चित्र को जला दें, चित्र जलते ही तमाम श्राप नष्ट हो जाएंगे और तमाम धन सम्पत्ति उसकी हो जाएंगी मगर कृपया एक विनती है फिर इस धन-संपत्ति का ग़लत उपयोग न करें, जिसके लिए मैंने अपने पूरे परिवार और अपनी प्राणों की भी आहूति दे दी वो व्यर्थ न जाने पाए। मेरा अब सर चकरा रहा है शायद अब मैं जीवित नहीं बचूंगी..
अनुपमा आगे एक लंबी रेखा खिंचती चली गई थी जिससे पल्लवी ने अनुमान लगाया कि शायद तभी अनुपमा ने प्राण त्याग दिए थे। पूरी किताब पढ़ कर पल्लवी की आंखें भर आईं।
फिर जब विवाह समारोह से किशन और उसके माता-पिता सब वापस आए तो पल्लवी ने उन्हें सबकुछ बता दिया और किताब भी दिखाई। दूसरे दिन सभी खिड़की से होते हुए गर्भगृह में गये और प्रथम सबने उस चित्र को जला दिया फिर उस संपत्ति को हाथ लगाया।
किशन और उसके परिवार ने उस संपत्ति का सदुपयोग करते हुए वहां गरीबों के लिए शिविर, अस्पताल और गरीबों को वस्त्र भी बांटे।
देखा जाए तो अगर पल्लवी ने उस खिड़की में दिलचस्पी न दिखाई होती तो किशन की पीढ़ी भी इस धन-संपत्ति और इन तमाम बातों से अनभिज्ञ ही रहतीं। (समाप्त)
लेखन समय- 6:15
दिनांक 25.7.24- गुरुवार



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