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हम तुम्हें अपना मानते हैं
कभी कभी लोगों को हमारी तरफ से गलतफहमियाँ हो जाती हैं.. और हमें पता ही नहीं चलता... और जब पता चलता है तो हैरानी के साथ उस गलतफहमी को कैसे दूर किया जाये दिमाग को काफी मशक्कत करनी पड़ जाती है...

इस स्थिति को आ बैल मुझे मार कहूँ  या कुछ और... आज ऐसी ही स्थिति से दो चार होकर अब फ्री हुई हूँ..
हुआ ये कि हमारी एक दूर की रिश्तेदार हैं.  भाभी लगती हैं मेरी. जून में उनकी मदर की डेथ हो गयी थी. उस वक़्त मेरी उनसे बात नहीं हो सकी थी.

फ़िर बड़े मामा की डेथ हो गयी उसके बाद खुद को ही सम्भालने में मुश्किल हो रही थी. तब भी मैं उनको ताजियत का मैसेज नहीं कर सकी थी.
फिर कुछ दिन के बाद उन्होंने अपनी मदर के लिये कुरान ख्वानी करवायी जिसमें सबको वाट्सएप पर इनवाइट किया था.

मैंने वो मैसेज चेक किये लेकिन रिप्लाई नहीं कर सकी थी क्यूँकी उस वक़्त मेरी तबियत ठीक नहीं थी. मैं रिप्लाई करना भूल गयी. पर जान बूझकर मैंने ऐसा नहीं किया था.

बात यहीं से शुरू हो चुकी थी. वो ये सोचकर मुझसे नाराज थी कि मैंने जानबूझकर मैसेज इग्नोर कर दिए हैं.आज मुझे अपनी दोस्त से पता चला कि वो इस बात को लेकर मुझसे ख़फ़ा हैं.

अब मुझे दो बातों का एहसास हुआ कि शिकायत तभी की जाती है जब कोई हमें अपना खास मानता हैं. दूसरी ये कि जैसे मुझे लगता है कि हम बहुत सारे लोगों से मिलते हैं,
बातें होती हैं फिर सब वक़्त के साथ एक दूसरे को भूलकर
अपनी जिंदगियों में मसरूफ हो जाते हैं. कोई किसी के बारे में बात नहीं करता.. ऐसा नहीं है.. जिसको याद रखना होता है वो जरूर याद रखता है.

मैंने फिर उनको फोन लगाया.. दुआ सलाम के बाद मैंने उस गिरह को जानबूझकर छेड़ा... फिर दूसरी तरफ से नाराज़गी का इज़हार लाजिम था.. पूरे दस मिनट फोन पर मैं जवाब में यही कह रही थी कि जी आप बिलकुल सही है.. मैं समझ सकती हूँ..

उसके बाद मेरे बोलने का मौक़ा आया तो मैंने उनको उस वक़्त की सूरत ए हाल बतायी.
"तुम एक मैसेज कर देती कि भाभी मेरी तबियत ठीक नहीं है.. मैं नहीं आ सकती हूँ. तुमने मैसेज पढ़कर इग्नोर कर दिया..हमें बेहद अफसोस हुआ..ये तो तहज़ीब में भी आता है कि किसी के मैसेज का जवाब दिया जाये. तुम हमारी तरफ की हो इसीलिए हम तुम्हें बहुत मानते हैं"

दिमाग अपनी हर कोशिश से उन्हें मनाने के तरीक़े निकाल रहा था..
"आप बिलकुल सही हैं लेकिन मैं आपको अपनी उस वक़्त की कैफ़ियत नहीं बता सकती हूँ.. और आप कभी अपने वहम ओ गुमान में भी ये बात नहीं लाईएगा कि मैंने जान बूझकर मैसेज इग्नोर किया है. क्यूँकि जो चीजें मुझे अपने लिए नहीं अच्छी लगती हैं मैं दूसरों के लिए उन्हें सोच भी नहीं सकती हूँ.. "

ख़ैर पैंतालीस मिनट्स बात करने के बाद वो नॉर्मल हो चुकी थी. मैंने भी राहत की साँस ली.
लेकिन सारी बातों को जाने दिया और बस एक बात अपने लिए महफ़ूज़ कर ली थी और वो ये थी कि...
" हम तुम्हें अपना मानते हैं. "

कहीं ना कहीं इस बात से मुझे उनकी फिलिंग्स पता चल गया था. पर मुझे लगता है कि अगर हम किसी को मानते हैं या हमारे लिए कोई रिश्ता खास है तो थोड़े थोड़े वक़्त के बाद ये बात दिल में रखने के बजाय बोलते रहना चाहिए..नहीं तो ऐसी गलतफहमी की गुंजाईश रिश्तों में ज़रूर मौजूद रहेगी.
आज के लिये बस इतना ही.. फिर मिलेंगे
NOOR EY ISHAL
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