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मन की उलझन।
यूँ कितना मुश्किल हो जाता हैं जब उस ही घर में रहते-रहते आप पागल से हो जाते हो हर रोज सुबह से रात मेहनत कर के भी आप बेचैन सा महसूस करते हो और कुछ न समझ आने पर सबसे दूर भागना चाहते हो।
आखिर कितना वक़्त लग जाता है किसी शक़्स को ढूंढ उसके साथ वक़्त बिताने में और फिर भी कुछ पूछने पर आप कोई सुलझा सा जवाब न पाते हो। क्या करे वो शक़्स तब जब हर दिन को हसीन बनाने वाला ही फस जाए घर ग्रहस्ति की उलझनों में और चिड़चिड़ाने लगे अक्सर छोटी छोटी बातो पर।
न भाग सकता, न कुछ छोड़ सकता क्योंकि गैर ज़िम्मेदारी का दाग उसे बर्दाश्त नही होता।
वो जो हमेशा एक अलग अल्फाज़ो की दुनिया में रहना चाहता, आज खुद अपने लफ्ज़ो से खुद की उलझन न समझ पा रहा।
हो कोई जवाब इन उलझनों का जो मन को उदास कर, दिमाग को कमजोर बनाती,
तो इंतज़ार हैं हर लम्हा उन लफ्ज़ो का।