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पाँच पत्थर
मेरे पाँच अनोखे पत्थर

मैं और चँदा ,बच्चपन की दो सहेलियाँ ,और हमारे वे साथी जो अक्सर हमारे साथ रहते थे। हमारे वो पाँच अनोखे पत्थर। जिनके के बिना हमने एक दिन न बिताया हो । मैं रोज स्कूल जाया करती थी। पढ़ाई और लिखाई तथा चित्रकला मे मेरी अधिक मात्रा मे रूचि हुआ करती थी।अपितु चँदा इन सबसे दूर रहा करती थी। उसे बस कढ़ाई, बुनाई ,सिलाई और तरह तरह के व्यंजन बनाना अधिक पसंद था। पर हम दोनों के अटूट रिश्ते को बाँधे रखा उन पाँच पत्थरोंने। जिनसे हम दोनों अत्यधिक प्रेम करते थे। स्पष्ट रुप से कहा जाये तो , वे भी हमारी दोस्ती का एक प्रमुख हिस्सा थे।

हमारे पास थे वह साँवले पत्थर,
जो जानते हमारी मौन भरी बातें अक्सर
, कभी बड़ी सी शीला तथा मिट्टी के ढ़ेर से दबकर ,
न जाने हमारी हथेलियों मे कब आ पहुँचे फ़ुदककर ।

रविवार का दिन था । हम दोनों ने अपने-अपने घर के सारे काम निपटा लिए ।दोपहर का समय था । घर के तथा आसपास के पड़ोसी शांति से विश्राम कर रहे थे । अब मेरा और चँदा का बाहर निकलना निश्चित हो चूका था । माँ ने मुझे प्रातः मे ही चेतावनी दी थी , बाहर ना जाना । पर बेचारा मन न माना । दरवाज़े के बाहर चँदा तरह - तरह की ध्वनियाँ निकालने में जुट गयी थी । गर्मी का मौसम चल रहा था। हम सब ने दोपहर का खाना खा लिया था। अब माँ के सोने का समय हो चूका था। देखतेही देख माँ की आँख लग गयी। मैं छुपकेसे , दबे पाँव , दरवाज़ा खोलकर बाहर निकली। हम दोनों ऊपर छत पर चले गए। चँदा को यह खेल खेलना बहुत आसान था , पर मेरे लिए कठिन। क्योंकि पत्थर उछालते समय ,उसी दौरान ,तुरंत ही मुझे नीचे के पत्थर समेटना मुश्किल होता था। मैं अक्सर हारा करती थी। पर हारने से ज़्यादा हम दोनों एक साथ खेलकर जो आनंद का लुप्त उठाते ते उसकी बात कुछ और ही हुआ करती थी । हम दोनों खेलने मे इतने मशग़ूल हो गए थे की शाम कब हुई इसका पता ही नहीं चला।
वो दिन भी क्या दिन थे जो बचपन मे गुज़ारे हमने एक साथ । आज भी जिन्हें मैं याद करती हूँ , आँखें नम सी हो जाती हैं और चेहरे पर एक अनोखी ख़ुशी छा जाती है।

प्रतिभा पाटील