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"द सिक्रेट KEY🗝️"
ASHOK HARENDRA
© into.the.imagination

#thriller #mystery #love

द सिक्रेट KEY🗝️
मई के महीने की यह एक गर्म शाम थी। वैसे तो शाम के सात बज रहे थे लेकिन अभी भी दिन खिला हुआ था। शहर का सबसे बड़ा हरा-भरा क्षेत्र होने के बावजूद भी यहाँ गर्मी काफ़ी थी। फिर भी रोजमर्रा की तरह सबकुछ एकदम सुचारू रूप से चल रहा था। दफ़्तर अब बंद होने लगे थे, स्ट्रीट लाईट्स जल चुकी थीं, रंग-बिरंगे साइनबोर्ड चमकने लगे थे।

यह क्षेत्र डीसीसी यानी डिस्ट्रिक्ट कॉरपोरेट सेंटर के नाम से विख्यात था। यह एक बड़ा और महंगा व्यापारिक क्षेत्र था जिसे शहर का दिल कहा जाता था। सगर चौक इस क्षेत्र की सबसे प्रसिद्ध जगह थी, इसलिए अधिकतर प्रसिद्ध कंपनियों के दफ़्तर, रेस्तरां भी इसी क्षेत्र में उपस्थित थे। सगर चौक पर कोने की ईमारत में एक बड़ा और प्रसिद्ध रेस्तरां था जिसमें हर समय भीड़ दिखाई देती थी।

इस रेस्तरां की पहली मंजिल पर शीशे की बड़ी खिड़की के पास वाली टेबल पर रमन बैठा था। थोड़ी ही देर में उसकी मुलाक़ात यश प्रभाकर से होने वाली थी। यश प्रभाकर एक उम्रदराज़ वकील और रमन के पिता के पारिवारिक सलाहकार थे। बाहर धीरे-धीरे दिन की रोशनी कम हो रही थी और खिड़की के शीशे में धुंधला धुंधला-सा रमन को ख़ुद का ही प्रतिबिंब दिखाई देने लगा था। शीशे में अपना प्रतिबिंब दिखने पर उसे पिछले महीने इसी टेबल पर हुई अपनी और लक्षिका की बातें याद हो आईं।

पिछले महीने की एक शाम, रमन और लक्षिका इसी टेबल पर बैठे थे। दोनों के सामने अपने-अपने पसंदीदा ड्रिंक्स रखे थे, हमेशा की तरह ही लक्षिका के सामने वर्जिन मोजिटो और रमन की फेवरेट लस्सी। उस रोज लक्षिका और रमन के प्रतिबिंब ऐसे ही शीशे में दिख रहे थे।

लक्षिका शीशे में रमन के प्रतिबिंब को देखते हुए बोली, "रमन!"
"हुम्म!" रमन ने लस्सी की घूँट भरते हुए शीशे में लक्षिका के प्रतिबिंब को देखा।
"मैं चाहती हूँ कि तुम जल्दी ही मेरे पैरेंट्स से हमारे बारे में बात करो!" लक्षिका उसी तरह उसके प्रतिबिंब को देखते हुए बोली।
"अरे यार!" रमन ने खबराए से अंदाज़ में कहा, "जब भी तुम पैरेंट्स से बात करने को कहती हो तो मेरी तबीयत ख़राब होने लगती है,"
"जनाब! अपनी तबीयत को एकदम दुरुस्त कीजिए," लक्षिका ने आँखें बड़ी करके देखते हुए रमन से कहा, "और मेरे पापा से बात करने के लिए कमर कस लीजिए,"
"हाँ जी, अब तबीयत ठीक हो या ख़राब, बात तो करनी ही पड़ेगी," रमन बोला, " लेकिन प्लीज़ डायरेक्ट सुप्रीम कोर्ट में नहीं, पहले हाई कोर्ट में याचिका लगवाओ न,"
"मैंने मम्मी को सबकुछ बता दिया है," लक्षिका ने स्ट्रा से एक सिप लिया और बोली, "किसी दिन तुम्हें मिलवाने ले चलूँगी,"
"यह ठीक रहेगा," रमन बोला।
"और उस बारे क्या किया?" लक्षिका ने पूछा।
"किस बारे में?" रमन ने प्रश्न भरी नज़रों से उसे देखा।
"रमन! तुम हमारे रिश्ते को लेकर ज़रा भी सीरियस दिखाई नहीं देते," लक्षिका के चहरे के भाव बदलते से लगे, “कम से कम इतना पैसा तो अपने पिता से ले ही सकते हो कि अपने खुद का एक घर ले सको। मुझे कहाँ रखोगे उन्हीं मामा-मामी के यहाँ?”
"लक्षिका! तुम मेरे लिए बहुत अहमियत रखती हो। तुम्हारे सिवा कोई नहीं है मेरा, और यह बात तुम अच्छे से जानती हो," रमन के चेहरे पर भी थोड़े दुख के भाव आए, “और तुम यह भी जानती हो कि मेरे पिताजी के हाथ में अब कुछ नहीं है वह तो खुद उन लोगों के मोहताज हैं,”
"ऐसे खयालातों के साथ तो तुम उनसे कभी कुछ नहीं ले सकते," लक्षिका थोड़ी नाराज़गी से बोली, "क्या बताओगे मेरी मम्मी को, और पापा से क्या कहोगे कि आपकी बेटी को मैं किसी किराए के घर में रख लूंगा?"
"लक्षिका! तुम अच्छे से जानती हो कि घर-मकान के मामलों में थोड़ा टाईम लगता है," रमन ने लक्षिका को समझाते हुए कहा।
"अच्छा?" लक्षिका बोली, "तो क्या कर रहे हो इस बारे में यह भी बता दो,"
"मैंने एक फ्लैट देख लिया है और होम लोन की बात भी चल रही हैं," रमन बोला।
लक्षिका ने अपना ड्रिंक खत्म किया और बोली, "तुम्हें एक बात बतानी थी। यह है कि पापा ने मेरे लिए एक अच्छा-सा लड़का पसंद कर लिया है,"
सुनकर रमन का मुंह लटक गया।
फिर लक्षिका उठी और रमन के बालों को बिगाड़ते हुए बोली, "मज़ाक कर रही थी बुद्धू लेकिन जल्दी इंतज़ाम कर लो, कहीं सच में ही न पापा कोई लड़का ढूँढ लें। और हो सकता है वह तुमसे ज़्यादा हैंडसम हो, और उसके पास खुद का एक आलीशान घर भी हो!"
लक्षिका हंसते हुए उसको बाई-बाई करके चली गई।

रमन जब नौ वर्ष का था तो उसकी माँ चल बसी। उसके पिता शशिकान्त का शहर के बड़े रईसों में नाम था। व्यापार की देखरेख के कारण वो रमन को समय न दे पाते थे। परिचितों की सलाह और अपनी माँ के दवाब में आकर शशिकान्त ने कमलावती से दूसरा विवाह कर लिया था, ताकि रमन की परवरिस में कोई दिक्कत न आए और बच्चा रमन अपनी माँ के गम को भी भुला दे। लेकिन अपने पिता का यह नया रिश्ता और अपनी यह नई माँ रमन को पसंद नहीं थे।

खैर जैसे-तैसे एक साल गुज़र गया, और दूसरे साल के अंत होते-होते शशिकान्त से कमलावती को एक बेटा हुआ, उसका नाम रखा गया रजनीश। अब शशिकान्त को जब भी काम-काज से फुर्सत मिलती तो उसका सारा समय कमलावती और उसके बच्चे रजनीश के साथ ही गुज़रता। फिर धीरे-धीरे कमलावती ने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए, और शशिकान्त की ज़िंदगी से रमन को एकदम बाहर कर दिया। शशिकान्त समाज और प्रतिष्ठित लोगों में अपनी शाख बनाए रखने को चुप ही रहते। रमन बच्चा था और व्यवहार से भी शांत था इसलिए वह भी कभी कुछ नहीं कहता। जैसे-जैसे रमन बड़ा हो रहा था उसकी ज़िंदगी से उसका हरेक अधिकार छिनता जा रहा था। और आज यह स्थिति थी कि शशिकान्त की सारी दौलत और व्यापार रजनीश के नाम हो चुका था। रमन ने अपने अधिकार को लेकर कभी झगड़ा नहीं किया वह उस घर को भी छोड़ चुका था, बल्कि उसे घर से निकाल दिया गया था। अब वह अपने मामा-मामी के यहाँ रहता था और एक बड़ी कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर के ओहदे पर था।

पिछले कुछ सालों से रमन और लक्षिका के बीच प्रेम संबंध था, और दोनों ने शादी कर जीवन भर साथ रहने का निर्णय भी लिया था। लक्षिका चाहती थी कि उनकी शादी से पहले रमन के पास कम से कम ख़ुद का एक घर हो। यह बात लक्षिका ने रमन से कही भी थी कि उसके घरवाले किसी ऐसे लड़के के हाथ में अपनी बेटी का हाथ नहीं देंगे, जिसके पास रहने को अपना घर तक न हो। लक्षिका ने कुछ दिन पहले अपनी माँ से रमन को मिलाया था। उसकी माँ ने तो रमन को देखकर और उसके काम-काज के बारे में जानकर उसे पसंद कर लिया था। लेकिन अब बात लक्षीका के पिता से करनी बाक़ी थी। जोकि रमन के अपने घर को लेकर अटकी हुई थी।

रमन अपनी ज़िंदगी की उधेड़-बुन में लगा था। तभी उसके फ़ोन की घंटी ने बजकर उसका ध्यान वापस वर्तमान में खींच लिया। यह यश प्रभाकर की कॉल थी वह रेस्तरां में निचे पहुँच चुके थे। रमन ने कहा कि वे ऊपर चले आयें।

थोड़ी देर में रमन और यश प्रभाकर आमने-सामने बैठे थे। रमन ने उनके और अपने लिए लस्सी मँगवा ली थी।

"जी अंकल कैसे याद किया आपने?" रमन ने पूछा।
अपनी लस्सी में एक सिप लेने के बाद यश प्रभाकर बोले, "बेटे, तुम्हें लेकर मैं हमेशा ही चिंतित रहा हूँ, शशिकान्त की ऐसी भी क्या मज़बूरी रही कि अपने सगे बेटे की मासूमियत भी न दिखाई दी,”
“उनकी जगह कोई और होता तो शायद वह भी ऐसा ही करता,” रमन बोला।
“नहीं! उसकी जगह मैं होता तो दूसरा विवाह कभी न करता!” यश प्रभाकर झुँझलाते हुए बोले, “क्या मिला उसे दूसरा विवाह करके और क्या दे गया तुम्हें अपने मरने के बाद?”
“अंकल जो हुआ वह सही हुआ, शायद हम बाप-बेटे की ज़िंदगी में ऐसा ही लिखा था!” रमन बोला।
“नहीं लिखा था ऐसा! मैं उसे उसकी शादी के पहले से ही जनता था और तुम्हारी माँ को भी। कितना प्यारा परिवार था! जाने किसकी नज़र खा गई उन खुशियों को?” कहते हुए यश प्रभाकर की आँखें भर आईं। रमन ने भी अपनी आँखों के पोरों को भीगते हुए महसूस किया और उसके गले में जैसे कुछ अटक-सा गया।
यश प्रभाकर ने अपनी जेब से रुमाल निकाला और चश्मा हटाकर आँखें पोंछते हुए बोले, “खैर! अब क्योंकि शशिकान्त को गए भी महीना हो चला है। तुम भी थोड़े नॉर्मल हो गए होगे, इसलिए सोचा कि तुमसे एक बात बता दूँ। परसों यानि बारह मई को शाम सात बजे तुम्हें मेरे ऑफिस पहुँचना है, तुम्हारी माँ और भाई को भी बुलाया है,”
“और वह किसलिए?” रमन ने पूछा।
“अपनी मौत से एक महीना पहले तुम्हारे पिता ने एक विल लिखवाई थी। वही तुम लोगों को बताना है वैसे तो पहले ही सब-कुछ उन लोगों ने ले लिया है। लेकिन विल के मुताबिक कोठी तुम्हारी माँ और भाई के नाम और एक 3BHK फ्लैट और पाँच लाख रुपये जो उनके बैंक अकाउंट में थे तुम्हारे नाम कर दिए हैं,” एक सांस लेकर यश प्रभाकर बोले, “गनीमत है कुछ तो दे गया तुम्हें, वरना मैंने तो सोचा था कि...खैर छोड़ो, बारह तारीक को समय से पहुँच जाना, फिर मुझे आगे की कानूनी कार्यवाही भी करवानी है,”

कहकर यश प्रभाकर ने अपनी लस्सी खत्म की और उठ खड़े हुए।
***

बारह मई को तयशुदा समय पर यश प्रभाकर ने शशिकान्त की विल पढ़कर सुना दी और उन तीनों के हस्ताक्षर भी ले लिए ताकि बाद में कोई अड़चन न आए। 3BHK और पाँच लाख रुपये रमन को मिलने की बात सुनकर कमलावती और रजनीश यह भी भूल गए कि विल के मुताबिक उन्हें एक आलीशान कोठी मिली है। वे शशिकान्त के इस निर्णय पर बिल्कुल भी खुश नज़र नहीं आ रहे थे। वे न तो आते हुए रमन से बोले और न ही जाते हुए। दोनों माँ-बेटे पैर पटकते हुए यश प्रभाकर के ऑफिस से यह कहते हुए निकल गए कि शशिकान्त को यह पट्टी ज़रूर आपकी ही पढ़ाई हुई होगी।

अगले तीन दिनों के भीतर ही यश प्रभाकर ने रमन के नाम फ्लैट ट्रांसफर करवा दिया और उसे पाँच लाख रुपये भी दिलवा दिए। हालाँकि रमन के अधिकार के अनुसार यह सब बहुत ही मामूली था लेकिन इन बातों का रमन के चेहरे पर ज़रा भी मलाल नज़र नहीं आ रहा था।

सत्रह मई को रविवार का दिन था और रमन ने अपने थोड़े-बहुत सामान के साथ फ्लैट में शिफ्ट कर लिया था। रमन अपने इस नए फ्लैट के ड्रॉइंग रूम में बड़े इत्मीनान के साथ बैठा था। आज रमन के पास ख़ुद का घर था। लक्षिका के लिए घर को लेकर अब उसकी समस्या खत्म हो गई थी। लक्षिका की तो ख़ुशी का ठिकाना ही न था यह जानकर कि उसके पिता ने अपनी सम्पत्ति में से यह घर रमन के नाम किया था। कल शनिवार को ही वह अपनी माँ के साथ रमन के इस नए घर को देखकर भी गई थी।

रमन उठा और सामने दीवार पर लगी एक बड़ी-सी पेंटिंग के पास पहुँचा। इस पेंटिंग को रमन अच्छे से पहचानता था। यह शशिकान्त की पनसंदीदा पेंटिंगों में से थी। बचपन में रमन के पिता ने उसे यह पेंटिंग जाने कितनी ही बार दिखायी थी यह खुद रमन को भी याद नहीं था। शशिकान्त उससे हमेशा कहता था कि यह सेल्वेटर मुंडी की नकल करके और थोड़ा बदलाव करके बनाईं गई है।

आर्टिस्ट ने इसे सेल्वेटर मुंडी की तरह ही पैंट किया था और थोड़ी तब्दीलियां की थीं। जैसे कि ओरिजिनल पेंटिग में सेल्वेटर मुंडी के दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यम उंगलियां ऊपर की ओर हैं, और बाएं हाथ में एक क्रिस्टल ग्लोब है जिसमें तीन चमकदार बिंदू त्रिभुज की आकृति बना रहे हैं। लेकिन इस पेंटिंग में इसकी दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यम उंगलियां सामने की ओर हैं। और इसके बाएं हाथ के ग्लोब में चार बिंदू एकदम आयताकार चमक रहे हैं। ग्लोब के ठीक निचे आर्टिस्ट ने जापानी या चाइना जैसी किसी भाषा के पाँच अक्षरों में अपने हस्ताक्षर कर रखे थे। शायद यह पेंटिंग किसी चाइना या फिर जापानी कलाकार ने बनाई हो सकती थी। कितनी ही देर तक रमन उस पेंटिंग में सेल्वेटर मुंडी जैसे व्यक्ति से नज़रें मिलाता रहा, लेकिन वह पेंटिंग रमन से एक शब्द भी नहीं बोली। वह वापस सोफे पर बैठ गया और सोचने लगा कि अब जल्दी ही उसे लक्षिका के पापा से मिल लेना चाहिए।
तभी उसके मोबाईल फोन की घंटी बजी। यह लक्षिका की कॉल थी।

"हैलो!" रमन ने कॉल पिक की, "मैं अभी तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था,"
"झूठे!" उधर से लक्षिका बोली।
"सच में!" रमन ने अपनी तर्जनी अंगुली और अंगूठे से अपने कंठ को छुआ।
"घर पर हो?" लक्षिका ने पूछा।
"नहीं! नए फ्लैट पर," रमन ने ज़वाब दिया और चहलकदमी करते हुए बोला, "मैं तुम्हारे बताए कलर को लेकर इमेजिन कर रहा था कि उस कलर में ये दीवारें कितनी खूबसूरत लगेंगी!"
"सो तो है, दीवारों के कलर बदलवा ही दो। सामानों में भी बदलाव होना चाहिए और उनके प्लेसमेंट भी बदलो," एक सांस लेकर वह फिर बोली, "और वह ड्रॉइंग रूम वाली बड़ी-सी जो पेंटिंग है उसे भी हटवाओ, कुछ ख़ास नहीं है वो! उसकी जगह हम वहाँ कोई ऐंटीक-सा पीस लगाएंगे। और उस पेंटिंग के ठीक सामने वाली दीवार पर जाने कैसी पुरानी-सी फ्रेम और जाने क्या लगा रखा है, मुझे वह कतई अच्छा नहीं लगा उसे वहाँ से हटाकर कहीं और लगवा दो!"
रमन उसी पेंटिंग को देखते हुए लक्षिका की बातें सुन रहा था, उसने पलट कर पीछे की दीवार पर लगा वह फ्रेम देखा जिसके बारे में लक्षिका कह रही थी। वह उस फ्रेम तक पहुँचा और ध्यान से देखने लगा। उस बड़े फ्रेम में समुंद्र किनारे की रेत का दूर तक फोटो लिया गया था। और उस फोटो के ऊपर चार स्केलेटन कीज (पुरानी तरह की चाबियाँ) नन्हीं किलों पर एक के बाद एक टँगी थीं। फिर रमन ने वापस पलट कर उस पेंटिंग को देखा, "यह क्या?" रमन के दिमाग़ में 440 वोल्ट का एक ज़ोरदार झटका लगा।
"लक्षिका! यह पेंटिंग मेरे पिताजी की पसंद की है इसके बारे में हम बाद में सोचेंगे। लेकिन प्लीज़ मुझे माफ़ करना, एक ज़रूरी कॉल आ रही है, ज़रा मैं उनसे बात कर लूं!" रमन झटपट बोला।
"ओके! वैसे मुझे भी मम्मी के साथ जाना है फिर बात नहीं होंगी, तो कल करते हैं!" लक्षिका बोली।
"बिल्कुल! कल करते हैं," रमन ने कॉल डिस्कनेक्ट कर दी।

रमन ने एक गहरी सांस ली और सीधे उस पेंटिंग के पास पहुँचा। उसने ध्यान से उस पेंटिंग वाले व्यक्ति के दाहिने हाथ को देखा। ऐसा लग रहा था कि वह अपनी उंगलियों से सामने वाली दीवार की ओर इशारा कर रहा है। रमन ने वहीं से मुड़कर उस दीवार की ओर देखा। पेंटिंग वाले व्यक्ति का इशारा ठीक सामने दीवार पर टँगे उस चाबियों वाले फ्रेम की ओर ही था। रमन की निगाहें फिर से पेंटिंग को बारीकी से देखने लगी। उसकी निगाहें आर्टिस्ट के सिग्नेचर पर आकर रुक गईं।

"पाँच अक्षरों का कोई नाम इधर! और चार चाबियां उधर!"
"चार चाबियां?"
रमन को धुँधला-सा याद आया जब वह छोटा बच्चा था, शशिकान्त उससे कह रहा था, “रमन! देखो ऐसा लगता है यह सेल्वेटर मुंडी तुमसे कुछ कह रहा है, यह तुम्हें कुछ दिखाना चाहता है। बताओ क्या दिखाना चाहता है?”
“मुझे नहीं पता पापा,” रमन बोला।
“तुम्हें पता है, रमन बेटा! यह जो दिखाना चाहता है वह खोजा जा सकता है, कोशिश करो बच्चे!” शशिकान्त बोला।

बचपन का वह पल याद कर रमन की आँखों से आँसु निकल आए और वह रोते हुए बोला, “मुझे सच में नहीं पता, पिताजी,”
फिर उसे ख़ुद के भीतर से आवाज़ आती महसूस हुई, “तुम जानते हो यह तस्वीर क्या कहती है!”

अचानक ही उसे कुछ याद आया और वह वापस उस चाबियों वाले फ्रेम तक पहुँचा। फ्रेम में नन्हीं-नन्हीं पाँच कीलें ठोंकी गई थीं, चार कीलों पर चाबियां और एक कील खाली।
"यहाँ पाँच चाबियां होनी चाहिए, तो कहाँ है वह एक और चाबी? लेकिन ये सब चाबीयाँ पुराने समय के तालों की हैं जो आजकल बमुश्किल ही मिलते हैं। और इस फ्लैट में कहीं भी ऐसा पुराना ताला नहीं दिखा है जिसमें ऐसी कोई चाबी लगती हो," रमन गहराई से सोचने लगा, "क्या मतलब है इन चाबियों का?”
पंजे पर उचक कर रमन ने फ्रेम में झाँका ताकि चाबियों को ध्यान से देख सके। यह क्या? पाँचवी चाबी फ्रेम के अंदर ही पड़ी थी। रमन ने उस चाबी को उठा कर ध्यान से देखा। यह भी बाक़ी चाबियों की तरह ही पीतल की एक पुरानी चाबी ही थी, जिसमें शो पीस होने के अलावा कुछ ख़ास बात नहीं लग रही थी। रमन ने वह चाबी उस पाँचवी कील पर टाँग दी। फिर वह वापस आकर सोफे पर बैठ गया और आँखें बन्द कर सिर पीछे टेक लिया, "समझ नहीं आता मैं क्या अनाप-सनाप सोच रहा हूँ?"
तभी एकदम रमन की आँखें खुली, वह झटपट उठा और सामने पेंटिंग पर पहुँचा। अपने फोन में उसने गूगल लेंस खोला और पेंटिंग के सिग्नेचर का फ़ोटो लिया। अब उसे ट्रांसलेट करने की बारी थी। ट्रांसलेशन से जो शब्द उसे मिले, वे थे "हक्केन देकिरु" जिसका हिंदी में अर्थ था, "खोजा जा सकता है!"
"क्या खोजा जा सकता है?"
उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह पहेली उसे किस ओर ले जाना चाहती है। क्या वह इन बातों में यकीन करे या नहीं? वैसे ट्रांसलेशन से मिले शब्द उसे चौंकाने के लिए काफ़ी थे। और हक्केन देकिरु कोई नाम जैसा भी नहीं लगता! तो क्या अब उसे यकीन कर लेना चाहिए कि यह तस्वीर शशिकान्त ने जानबूझकर इस फ्लैट में लगवाई ताकि रमन इसे देख सके, और फिर यह फ्लैट भी तो शशिकान्त ने उसे ही दिया,”

"ठीक है मैं इस बात पर यकीन करता हूँ कि मेरे लिए पिताजी ने इस तस्वीर के माध्यम से कोई संदेश छोड़ा है, जिस संदेश को वे मुझे जीते जी न दे पाए!” वह ख़ुद से ही बोला।

"चलो शेर्लॉक होम्स! अब इस मिस्ट्री को सुलझाते हैं!" फिर वह जासूसी अंदाज़ में चहलकदमी करते हुए बोला, "हाँ तो मिस्टर सेल्वेटर मुंडी आपसे से ही शुरू करते हैं। बरा-ए-मेहरबानी आप ज़रा यह बताएं कि अपनी ये ऊंगली उधर क्यों कर रहे हैं? उधर, बिल्कुल सामने, उस दीवार पर, जहाँ वह फ्रेम लगा है? क्या दिखाना चाहते हैं आप?"

कुछ क्षणों तक ख़ामोशी से चहलकदमी करने के बाद वह बोला, "देखिए मिस्टर मुंडी मेरे पास ज्यादा समय नहीं है और आपके पास भी फालतू समय नहीं होगा, मेरी ही तरह! तो, बिना देर किए सब कुछ बता दें।" फिर वह बोला, "वेल! मुझे अब उन चाबियों से ही राज़ उगलवाना पड़ेगा! नो प्रॉब्लम, मैं इस काम में माहिर हूँ।" कहकर उसने चाबियों वाले फ्रेम की ओर क़दम बढ़ाए और मुँह से एक थ्रिलर ध्वनि निकाली, "टेन-टेडेनssss!"

अपने दोनों हाथों को उसने किसी फ़िल्म के कैमरा डॉयरेक्टर की तरह फैलाए और चाबियों वाले फ्रेम को फ़ोकस करने लगा। उसके हाथ धीरे-धीरे फ्रेम के पास आ रहे थे और नज़दीक आकार वह रुक गया। फिर धीर-धीरे उल्टे क़दमों से पीछे हटने लगा लेकिन हाथों से अभी भी उसने फ्रेम को फ़ोकस कर रखा था। तभी उसकी आँखें बड़ी हो गई और मुँह से सीटी बज गई। उसने देखा की प्रत्येक चाबी के दांतों (बिट) से एक इंग्लिश अक्षर बन रहा है।

पहली चाबी "E"
दूसरी चाबी "L"
तीसरी चाबी "T"
चौथी चाबी "B"
पाँचवी चाबी "A"

"यह तो बहुत हो आसान है," कहते हुए रमन ने चाबियों को सोचे हुए शब्द के अनुसार क्रम में लगाकर टाँग दिया। अब जो शब्द उसे मिला, वह था "TABLE"

उसने पलट कर देखा, सोफ़ा कोच के सामने ही सेंटर टेबल बिछा था। वह टेबल तक जा पहुँचा, लेकिन इसका कोई फ़ायदा नहीं था। टेबल के ग्लास पार से ही दिखाई दे रहा था कि टेबल में कोई सीक्रेट ड्रॉअर नहीं था। तो फिर कोई दूसरा टेबल होना चाहिए, यह सोच वह कोने में रखी स्टडी टेबल पर जा पहुँचा। उसपर एक राइटिंग पैड जो बिल्कुल ब्लैंक था और एक कोई पुरानी मैगज़ीन रखी थी। टेबल के ऊपर दीवार पर एक बड़ा-सा बुक शेल्फ था, उसमें कुछ पुस्तकें, कुछ पुरानी नॉवेल, श्रीमद्भगवद गीता और एक बाइबल रखी थी। बाएं तरफ़ उस शेल्फ में एक के ऊपर एक तीन छोटे खाने थे, जिनमें एक-एक शो पीस था। बीच वाले खाने में करीब” सात इंच बड़ा भारी-सा पीतल का एक आर्टिफेक्ट रखा था। जिसमें दो व्यक्ति बने थे, और देखकर लगता था जैसे वे झगड़ रहे हों।

"क्या बकवास चीज़ें रखी हैं, पिताजी ने भी?" रमन झल्लाया।

उसने टेबल को अच्छे से देखा, हर तरफ़ नीचे, ऊपर, दाएं, बाएं लेकिन इस टेबल पर भी कोई सुराग उसके हाथ नहीं लगा। उस समय रमन के दिमाग़ का प्रॉसेसर बहुत ही फ़ास्ट चल रहा था, जिसके कारण उसे अपना दिमागी सिस्टम हैंग होता-सा लगा। वह वहीं रिवाल्विंग चेयर पर बैठ गया सामने रखी सभी चीज़ों को एक के बाद एक देख रहा था। लेकिन उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था।

“हुम्म!” रमन ने एक गहरी साँस ली और चाबी वाले फ्रेम का रुख़ करते हुए खुद से बोला, “टेबल थ्योरी तो फुस हो गई! कोई दूसरा शब्द खोजना होगा!"

वह फिरसे नए-नए शब्दों में चाबियों के क्रम को सोचने लगा। कभी "BEALT" कभी "BATLE" कभी "ABELT", उसके दिमाग में “BIBLE” शब्द भी आया लेकिन इस शब्द को वे चाबियां नहीं बना सकती थीं। उसे ऐसा कोई शब्द नहीं मिल रहा था जिससे कोई सुराग हाथ लगे। फिर उसने एक-एक कर सारी चाबियों को बारीकी से जाँचना शुरू किया, उनके दाँतों में बने इंग्लिश अक्षरों को, उनकी गर्दन की बनावट और उनके हेड की बनावट और डिजाइन को। तभी उसका ध्यान उस चाबी पर गया जिसकी बिट को वह “T” अक्षर मान रहा था। यह पूरी तरह “T” अक्षर नहीं लग रहा था। फिर उसने उसके हेड को देखा तो उसकी आँखे एकदम गोल हो गई और इस बार उसके मुँह से बड़ी तेज सिटी बज गई। इस चाबी के हेड के आर-पार जो डिजाइन बना था वह एक नज़र में तो डिजाइन ही लग रहा था, लेकिन ध्यान से देखने पर उसमें एक-दूसरे से चिपके हुए कुछ अक्षर लिखे थे, “C”,“A”,“I”,“N”, इस बार रमन की आँखे खुशी से चमक उठी। फिरसे उसने सबका फ़ेवरेट गूगल बाबा की मदद ली, और CAIN सर्च में डाल दिया। फिर क्या था गूगल बाबा ने ढ़ेरों नतीजे लाकर सामने रख दिए। लेकिन सबसे ऊपर विकिपिडिया वेबसाईट ने ही उसे एक अनोखा नतीजा दिखा दिया, “Cain is a biblical figure in the Book of Genesis within Abrahamic religions. He is the elder brother of Abel, and the firstborn son of Adam and Eve, the first couple within the Bible.”

विकिपिडिया के मुताबिक “CAIN” का एक छोटा भाई था जिसका नाम “ABEL” था। रमन ने बाकी बची चार चाबियों को देखा, उनमें केवल वही अक्षर बचे थे जिनसे “ABEL” लिखा जा सकता था। फिर क्या था रमन ने चाबियों को क्रम से लटकाकर “ABEL” शब्द बना दिया। अब एक पाँचवी चाबी उसके हाथ में थी जिसे अभी तक वह “T” मान रहा था, वास्तव में वह चाबी थी “CAIN”

रमन ने विकिपिडिया वेबसाईट के लिंक पर क्लिक कर दिया। जो कहानी सामने आयी वह कुछ इस तरह थी, “बुक ऑफ जेनिसिस के अनुसार कैन आबेल का बड़ा भाई, और आदम और हव्वा का पहला बेटा था। वह एक किसान था जिसने अपनी फसल का एक प्रसाद भगवान को दिया था। हालाँकि, भगवान खुश नहीं थे और उन्होंने कैन के बजाय उसके छोटे भाई आवेल के प्रसाद को तरजीह दी। ईर्ष्या के कारण, कैन ने अपने छोटे भाई आवेल को मार डाला, जिसके लिए भगवान ने कैन को अभिशाप दिया और दंडित किया,”

इस कहानी के साथ ही रमन को कई तस्वीरें भी दिखीं जिनमें कैन अपने छोटे भाई आवेल की हत्या कर रहा है। तस्वीर देखते ही रमन का माथा ठनका, वह झटसे स्टडी टेबल पर पहुँचा। बुक शेल्फ में जो वह दो व्यक्तियों वाला आर्टिफेक्ट था, वास्तव में वह बुक ऑफ जेनिसिस वाले कैन और आवेल थे। रमन का दिमाग चकराने लगा, “इतना बड़ा झोल? आख़िर पिताजी को यह सब करने की क्या ज़रूरत थी?”

रमन ने हाथ बढ़ाकर वह कैन और आवेल वाला आर्टिफेक्ट उठाया। लेकिन वह उसके हाथ से फिसल गया, क्योंकि वह शेल्फ में फिक्स्ड था। रमन ने उसको बिल्कुल नज़दीक से देखा, ऐसा लग रहा था की उस आर्टिफेक्ट को घुमाया जा सकता है, रमन ने तुरन्त ही उसे घुमाया लेकिन वह नहीं घूमा। फिर रमन ने उसे धक्का देकर पीछे किया तो आर्टिफेक्ट पीछे झुक गया। उसके साथ ही टेबल के नीचे कहीं “ठक” की तेज़ आवाज़ हुई। रमन ने झुक कर टेबल के नीचे देखा तो दीवार में करीब ढ़ेढ़ बाई दो फुट की एक गुप्त अलमारी खुली हुई थी।

रमन की आँखें फटी की फटी रह गईं, वह अपने घुटनों पर बैठ गया और टेबल के नीचे हाथ बढ़ाकर उस अलमारी की ड्रॉअर को बाहर की तरफ़ खींच लिया। वह ड्रॉअर लगभग तीन फुट बाहर आ गई। ड्रॉअर नीले मखमली कपड़े से ढँकी थी और ऊपर एक कागज मुड़ा हुआ रखा था। रमन ने कागज उठाकर खोला और उसपर जो लिखा था पढ़ने लगा।

“बेटा रमन!

मुझे माफ कर देना, वैसे मेरा गुनाह माफ़ी के काबिल तो नहीं, लेकिन मैं अपने बेटे को अच्छे से जानता हूँ, उसका दिल बहुत बड़ा है।

यदि तुम इस पत्र को पढ़ रहे हो तो मुझे खुशी है कि तुमने आखिर इसे ढूंढ ही लिया। मुझे नाज़ है तुमपर आखिर तुम मेरे खून हो। इस तरह इसे गुप्त रूप से छुपाने का केवल एक ही मकसद था तुम्हारा सोतेला भाई और सोतेली माँ। जीते जी तो मैं तुम्हें कुछ न दे सका, मरने के बाद ही सही। यह सब केवल तुम्हारा है, तुम जैसे चाहे इसे खर्च करो। लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम इस धन के साथ पूरी ईमानदारी बरतो और इसे ऐसे ही जाया न जाने दो। और जितना हो सके किसी अच्छे काम पर इसमें से खर्च कर देना। ताकि समाज में किसी जरूरतमंद का कुछ भला हो सके। बाकी तुम इस सारे धन के मालिक हो, जैसी तुम्हारी मर्जी।

तुम्हारा अभागा पिता
शशिकान्त।”

रमन की आँखें बरबस ही बरस पड़ीं, चिट्ठी को सीने से लगाकर वह रो पड़ा। फिर कुछ देर बाद उसने खुद को संभाला और धड़कते दिल के साथ जैसे ही वह नीला मखमली कपड़ा हटाया उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वह ड्रॉअर सोने के बिस्कुटों (Gold Bar) और नकदी से भरा पड़ा था। रमन की तो सांस ही रुक गई उसने एक बिस्कुट निकालकर अपनी हथेली में रख लिया। सोने की चकाचौंध पीली किरणें रमन की आँखों से टकरायी। पहली बार उसने अपने भीतर दौलत की अद्भुत शक्ति का संचार होते हुए महसूस किया। रमन की आँखें बरसने से खुद को रोक ही नहीं पा रही थीं, आँसुओं की जैसे झड़ी ही लग गई थी, वह फूट-फूट कर रो रहा था।
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(Picture taken from Internet)

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