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औकात
औकात
मध्यमवर्गीय परिवार की शालू ने पति के ना रहने पर बड़े जतन से दोनो बच्चो को बड़ा किया । इसी साल उसकी बेटी दिव्या ने बारहवीं और बेटे वंश ने दसवीं मे अपने विद्यालय मे सर्वोच्च अंक प्राप्त किये । सभी दिव्या और वंश के साथ साथ शालू को भी सराह रहे थे।
शालू ने खुद के सास ससुर तो थे नही जो थे सिर्फ पति अमित के चाचा चाची ही थे। शालू मिठाई का डिब्बा ले दोनो बच्चो के साथ उनके पास बच्चो को आशीर्वाद दिलाने ले गई । थोड़ी देर बाद वो उठकर चाची जी के पास रसोई मे मदद करवाने लगी ।
" बारहवीं तो हो गई अब आगे क्या सोचा है ?" दिव्या से चाचा जी ने पूछा।
" बाबा आगे सीए और साथ साथ बीकॉम करूंगी !" दिव्या ने उत्तर दिया।
" अच्छा पर क्या करोगी इतना पढ़कर वैसे भी पढ़ाई अपनी औकात के हिसाब से करनी चाहिए। तुम्हारी माँ के बस मे नही इतनी महंगी पढ़ाई करवाना तो औकात से बाहर ख्वाब मत देखो !" चाय की ट्रे लाती शालू के कानो मे चाचा ससुर के ये शब्द पड़े जो वो दिव्या से कह रहे थे उनके शब्दों मे घमंड की बू आ रही थी। उनकी बात सुनकर दिव्या रुआसी हो गई थी।
" चाचा जी आपके पास बहुत पैसा है पर उसके बल पर यूँ गर्दन ऐठा कर बच्ची से ये बाते करना सही नही । मैं यहाँ बच्चो को आपका आशीर्वाद दिलवाने लाई थी वही दे सकते है तो दीजिये रही औकात की बात तो सपने पूरे करने का हौसला जिनके पास हो तो औकात खुद ब खुद हो जाती है। आप बेफिक्र रहिये आपसे मैं कोई मदद नही लूंगी !" शालू ने चाय की ट्रे रखते हुए शालीनता से किन्तु दृढ़ता से कहा।
" नही नही वो ...मेरा वो मतलब नही था !" ये बोल चाचा ससुर नज़रे चुराने लगे।
शालू ने शालीनता के नाते चाय का कप उठा लिया और चुस्कियां लेने लगी पर उसने मन ही मन निश्चय किया कि अब जब तक बच्चो को उनके पैरो पर खड़ा नही कर लेती तब तक इस घर की चौखट नही पार करूंगी।


© kajal