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हफ्ते भर का दोस्त... Part-2


आज 1 साल हो गया मुझे... मैं कहीं घूमने गई ही नहीं...

सोचा तो था कि अगर तुम मुझे छोड़ सकते हो, तो मैं तुम्हारे बग़ैर भी खुश रह सकती हूँ... पर मेरे पास वक़्त नहीं बचता खुश रहने का...

सुबह से उठते ही भागा दौड़ी... और रविवार को कपड़े धो बैठकर... कामवाली के नखरे भी तो होते हैं...

ऑफिस के पास घर लिया जिस से समय बचे, पर समय से ऑफिस जाने की वजह से तरक्की हो गयी... अब समय से जाती तो हूँ... पर आती नहीं...

आज दीपक याद आ रहा है...

"हेलो... कौन... दीपक...???"

"हेलो रोशिनी... मैं बस सोच ही रहा था की आज फोन करूँ... 1 साल हो गया आज तुम्हें यहाँ आये..."

इसे याद था... कहीं इसको मुझसे... नहीं... नहीं... बिल्कुल नहीं...

"अरे वाह... क्या यादाश्त है तुम्हारी..."

"वो गाँव के व्यापारी आये थे... सेब वाले... याद है न तुम्हें... वो भी कह रहे थे, कि तुम आये नहीं बहुत वक़्त से..."

"अच्छा... और सुनाओ... काम वगेरह..."

"अब मार्केट में अपनी भी एक दुकान है... रोशिनी टूरिस्ट सपोर्ट... और 4 गाड़ी भी ले ली हैं... अब 18 महीने की किश्त बची है... तुम्हारे नाम की रोशिनी मेरी किस्मत पे चल गई..."

"मेरा नाम... हा हा हा हा"

इसको क्यों फोन किया मैंने... बेवजह... क्या बात करूं...

"कब आ रही हो...???"

"फिर से... नहीं... नहीं..."

"वो पहाड़ो पे एक कहानी मैंने बनते बनते रोक दी थी... आज तुमने फ़ोन किया तो लगा अब पूरी हो जाएगी..."

"कैसी कहानी..." और अब मैं चिढ़ गयी थी... "क्या है दीपक...??? क्यों फालतू बोल रहे हो...??? क्या कहानी...???"

"रोशिनी... एक मिनट... रुक जाओ... शाँत... गहरी साँस लो... और जहाँ हो वहीं बैठ जाओ..."

मैंने आपनी माथे की सिलवटें अभी अभी सिकुड़ी हुई महसूस की... पर मैं मान गयी उसका कहा... पता नहीं कैसे वो मुझे समझ जा रहा था... पर सही सही समझ रहा था मेरे अंदर के द्वंद को...

"आज छुट्टी है ना... और इत्तेफ़ाक़ से पूरा चाँद भी होगा आज..."

"हाँ... तो..."

"शाम को मेरे कहने पे एक सफेद रंग की कोई ड्रेस पहन के, समुन्दर के किनारे, शीतल चाँद और अशांत समुद्र को देखने के लिए किसी पत्थर पे बैठ जाना...

वहाँ बैठ के सोचना, क्यों भाग रही हो...???

क्या है जो माँग रही हो...???

क्या है, जो नहीं है...???

जो नहीं है, मिल जाये तो क्या करोगी...???

और उसके बाद अगर मन न लगा या मन भर गया तो...???"

मैं अब सोचने लगी...

मैं शेखर से भाग रही हूँ...

उसको माँग रही हूँ...

शेखर है, जो अब नहीं है...

मिल गया तो सवालों का समुद्र उड़ेल दूंगी उसपर...

और फिर भी मेरा मन नहीं लगेगा उसके साथ...

मैं कलप के चिल्लाई...

"दीपक"

और मेरी अश्रुधारा जैसे किसी बाँध को तोड़ते हुए मेरे अंदर से बह निकली...

"हाँ... क्या हुआ..."

"मैं आ रही हूँ... अपने बिछड़े पहाड़ो के पास...

तुम्हारे पास...

आज समुद्र को भी बता दूँगी...

की मैं जा रही हूँ... खुद के पास...

मेरे अंदर होने वाली कम्पन को दोबारा महसूस करने...

अपने जीवन को एक ठहराव देने..."

वैसे तो फोन कट गया पर बात मैं अंदर से अभी भी दीपक से कर रही थी...

शाम को मैंने सफेद गाउन पहना...

समुद्र से अपने नमकीन आँसू बाटें...

और घर पे आकर पैकिंग करने लगी...

मुझे जाना है अब...

आने वाले जीवन को एक ठहराव देने...

किसी पत्थर में रुके पानी में चिड़ियों को नहाते देखने...

हरे और मीठे सेब खाने...

खुद को सुनने किसी और की आवाज़ में...

रोशिनी बनने... अपने दीपक की...
© सारांश