तुम मेरी ज़िन्दगी का पहला मौसम थे
हमेशा की तरह इस बार भी मैं अक्टूबर का बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी। जिस रोज़ अक्टूबर के सूरज की पहली किरण मेरे कमरे की खिड़की से कूद अन्दर आयी, उस रोज़ जैसे मेरा मन मेरे मन में लौट आया। खिड़की पर लटके परदे पछुआ हवा से दो दो हाथ करने में व्यस्त रहे और घर के सामने से गुज़रती सड़क के उस पार लगे पेड़ के सूखे पत्ते कमरे में आ गिरे। अजीब है ना, जिस ओर से सूरज की किरणें आयी हों उसी ओर से पछुआ हवा में बहता पत्ता कैसे आ सकता है? ये सवाल शायद किसी के भी मन में उमड़ पड़े मगर...