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ज्ञान की नाजुक बातें
*ज्ञान की नाजुक बातें*

नाजुकता को कई संदर्भों में देखा समझा जा सकता है। सबसे पहले इसे हम वस्तु के संदर्भ में समझें। जैसे कोई ऐसी वस्तु होती है जिसके टूटने फूटने की ज्यादा संभावना रहती है। नाजुक वस्तुओं के उपयोग की समयावधि भी कम ही होती है। उपयोग करते करते यह खटका सा बना रहता है कि पता नहीं कब अनायास ही हाथ से छूट जाए और टूट फूट जाए। नाजुकता शब्द का ही पर्यायवाची शब्द है कोमलता। नाजुकता का अर्थ है कि किसी वस्तु की ऐसी अवस्था जिसके कभी भी किसी भी समय नष्ट होने की या बिगड़ने की या उसके आकार प्रकार के बदलने की पूरी संभावना रहती हो। अर्थात् जिस वस्तु की अंतरनिर्मित अवस्था के लम्बे समय तक वैसी की वैसी स्थायी बने रहने के बारे में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता हो। जिनके टिकने के बारे में हम कोई निश्चित समय सीमा के बारे में डंके की चोट पर कुछ नहीं सकते हों। जिसके बारे में उसके निश्चित समय तक बने रहने के लिए हमारे पास कोई प्रमाणिकता का प्रमाण पत्र ना हो। ऐसी वस्तुओं को नाजुक वस्तु कहा जाता है।

ठीक उसी प्रकार ही हम मानवीय संबंधों के बारे में कहते हैं कि मनुष्य के सम्बंध बड़े नाजुक होते हैं। कब कौन सा सम्बन्ध चटक जाए कुछ नहीं कहा जा सकता। ठीक ऐसे ही हम व्यक्ति, समय और मन के बारे में भी कहते हैं। जैसे - यह व्यक्ति बहुत नाजुक है। इस व्यक्ति का स्वभाव बड़ा नाजुक है। इस व्यक्ति का स्वभाव तो छुई मुई जैसा है। आदमी के मन के बारे में भी क्या कहा जाए जनाब - आदमी का भावुक मन भी बहुत नाजुक होता है। वास्तव में यह नाजुकता शब्द किसी भी तल की हो, पर यह स्वाभाविक ही होती है। इसकी इनबिल्ट स्थिति कुदरती ही ऐसी होती है। इसे हम कमजोर या शक्तिशाली स्थिति भी नहीं कह सकते हैं। वस्तु, व्यक्ति नाजुक है का मतलब है कि इसकी प्राकृतिक रूप से नेचुरली ही आंतरिक निर्मीति ही ऐसी बनी हुई है कि इस वस्तु पर जरा सा भी दबाव डालोगे तो यह टूट फूट सकती है। जैसे डायमंड होता है उसपर जरा सी चोट मारते है तो वह टूटता तो नहीं पर वह छिटक कर दूर चला जाता है। डायमंड तो नाजुक भी नहीं होता है। डायमंड तो कठोर होता है। पर यह छिटक कर दूर चले जाना भी एक प्रकार की नाजुकता होती है। इत्यादि इत्यादि ये सब बातें हम नाजुकता के बारे में कहते हैं।

*आज के परमात्म महावाक्यों (18/12/23) के अनुसार ज्ञान की बातों को नाजुक बातें कहा है। अर्थात् ज्ञान भी अपने कई लेवल्स पर नाजुक होता है। अध्यात्मिक ज्ञान भी अपने कई लेवल्स पर ज्यादा प्रामाणिक या प्रमाण पत्र देने वाला नहीं होता है। इसी विषय को यदि हम दूसरे प्रकार से देखें तो असल में जो चीज जितनी सूक्ष्म होती जाती है वह उतनी ही नाजुक प्रवृत्ति वाली भी होती है। अध्यात्मिक ज्ञान सूक्ष्म सुक्षमतम ज्ञान है। ज्ञान है तो ठीक, पर साकार सृष्टि में उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रामाणित नहीं किया जा सकता है। हां, निश्चित प्रकार के प्रयोगों के बाद अनुभव अवश्य किया जा सकता है। इसका अर्थ भी वही निकलता है कि ज्ञान की कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें लम्बी दूरी तक विस्तार नहीं दिया जा सकता है। विस्तार देते ही ऐसा समझिए जैसे कि वे ज्ञान की बातें भी टूट फूट जाती है। वे किसी निश्चित अपेक्षित नतीजे पर नहीं पहुंचती हैं। कुछ ज्ञान की बातों को ज्यादा तर्क वितर्क का दबाव देकर सिद्ध नहीं किया जा सकता है। ज्ञान की वे बातें नाजुक होती हैं जो अभौतिक होती हैं। ज्ञान की वे बातें नाजुक होती हैं जिनका सीधा सम्बन्ध आत्मा की अंतर्निहित गतिविधियों से होता है। ज्ञान की वे बातें नाजुक होती हैं जिन्हें समझने और समझाने के लिए अनुभव की प्रयोगशाला चाहिए होती है। ज्ञान की वे बातें नाजुक होती हैं जो अव्यक्त परमात्मा से और परमात्मा के दिव्य कर्तव्यों से संबंधित होती हैं। कुल मिलाकर अध्यात्मिक ज्ञान की वे बातें जिनके बारे में कोई तर्क नहीं दिए जा सकते, जिन्हें व्यक्तिगत तौर पर प्रयोगात्मक रूप से केवल अनुभव ही किया जा सकता है।*

*उदाहरण के तौर पर :- जैसे हम वायु को देख नहीं सकते। वायु के बारे में यदि तर्क वितर्क करेंगे भी तो उसे अच्छी तरह से सिद्ध नहीं किया जा सकता कि यह रही वायु। प्रयोग करने पर कुछ परिणाम दिख सकते हैं पर वायु का रूप आकार क्या है, वह वायु नहीं दिख सकती। जैसे आकाश तत्व (space element) एक खाली स्थान का नाम है। हम आकाश को देख नहीं सकते। लेकिन हम सब चीजें आकाश में ही होता हुआ अनुभव करते हैं। इस तरह तर्क वितर्क की सब बातों को दरकिनार करके यदि हम निश्चिन्त और विश्रांत मन बुद्धि से अनुभव में उतरें तो ज्ञान की उन बातों का भी अनुभव कर सकते हैं जो ज्ञान की बातें बड़ी नाजुक होती हैं।*