...

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न्याय
न्याय व्यवस्था पर करारा कटाक्ष !

" अभी तक मैं सोचता था कि अर्जून युद्ध नहीं करना चाहता था, पर कृष्ण ने उसे लड़वा दिया। यह अच्छा नहीं किया।
लेकिन अर्जुन युद्ध नहीं करता , तो क्या करता? कचहरी जाता?
जमीन का मुकदमा दायर करता?

अगर वन से लौटे पांडव अगर जैसे तैसे कोर्ट-फीस चुका भी देते, तो वकीलों की फीस कहां से देते?
गवाहों को पैसे कहां से देते?
और कचहरी में धर्मराज का क्या हाल होता?
वे क्रॉस एक्जामिनेशन के पहले ही झटके में उखड़ जाते।
सत्यवादी भी कहीं मुकदमा लड़ सकते!
कचहरी की चपेट में भीम की चर्बी उतर जाती। युद्ध में तो अट्ठारह दिन में फैसला हो गया| कचहरी में अट्ठारह साल भी लग जाते, और जीतता दुर्योधन ही,
क्योंकि उसके पास पैसा था।
सत्य सूक्ष्म है, पैसा स्थूल है।
न्याय देवता को पैसा दिख जाता है, सत्य नहीं दिखता।
शायद पांडव मुकदमा लड़ते लड़ते मर जाते, क्योंकि दुर्योधन पेशी बढ़वाता जाता।
पांडवों के बाद उनके बेटे लड़ते, फिर उनके बेटे। बहुत अच्छा किया कृष्ण ने, जो अर्जुन को लड़वाकर अट्ठारह दिनों में फैसला करा लिया। वरना आज कौरव-पांडव के वंशज किसी दीवानी कचहरी में वही मुकदमा लड़ते होते।"
इस लिए मैं कहता हूं।


"विफल शास्त्र के हो जाने पर, शस्त्र जगाना पड़ता है।
यानि शांति दूत को भी, तब युद्ध रचना पड़ता है।
जब अधर्म हावी हो जाता, और धर्म सहमा- सहमा सा।
तब मुरली धुन छोड़, कृष्ण को, शस्त्र उठाना पड़ता है''।