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स्वामित्व
ओह ! कितने खूबसूरत है फूल... आकर्षक, विलोभनीय...बस मन में आया ... तोड़ लेता हूं... घर के मंदिर में चढ़ा दूंगा...

हाथ फूल तक पहुंच गया... स्वामित्व की इच्छा बड़ी बलवान होती है... कहीं मौका हाथ से निकल न जाए !

पर फिर कोई जैसे समझाने के सुर में बोल पड़ा... ठहरो ! इतनी शीघ्रता न करो ... फूल का आनंद जैसे तुम्हें प्राप्त हुआ , यदि तुम फूल तोड़ लोगे तो औरों को कैसे प्राप्त होगा ?
फिर स्वामित्व से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वह अभी जहां है वहीं उसकी वास्तविक जगह है ...वह वहीं आकर्षक है विलोभनीय है तुम्हारे थैली में नहीं !

पर फिर किसी दुसरे स्वर ने प्रतिप्रशन किया..पर मंदिर में चढ़ाना भी तो है

वह समझाने वाला आश्वस्त स्वर पुनः बोला... तो अभी वो कहा अर्पित है ? परमात्मा को ही न... इस सृष्टि में उनसे जुदा कौन है ?
जब सब कुछ उन्हीं का स्वरूप है ।

कहने - सुनने को अब क्या शेष था ? स्वामित्व के लिए कहां स्थान था ?

स्वरचित
© ओम'साई' १८.०६.२०२१



© aum 'sai'