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नशे की रात ढल गयी-18
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अपनी जिन्दगी में रिश्तों की गर्माहट आपने कभी महसूस की है ? अगर नहीं, तो काश आप मेरी माँ से मिले होते ! अगर आप बहुत दूर से भी संबंध रखते हों और भूले भटके भी मेरे घर आ गये ,तो बगैर खाना खाये आपका जाना नामुमकिन होता । जबतक माई जिंदा रहीं -मेरे यहाँ संबंधियों का आना-जाना लगा रहा । लेकिन जब वह नहीं रहीं तो धीरे-धीरे उनकी आवाजाही कम होती गयी । ऐसा नहीं कि उसके नहीं रहने के बाद रिश्तेदारों के आने पर उनके खिलाने-पिलाने में कोई कमी की गयी लेकिन शायद उन्हें अब वो पहले वाली बात नहीं लगती और सबकुछ ठंडा-ठंडा और बेजान सा लगता । एकबार मेरे घर दूर के एक रिश्तेदार पधारे । माँ ने बेहद गर्मजोशी से उनकी आवभगत की । कई दिन बित गये लेकिन जाने का नाम तक नहीं । घर के लोग पीठ पीछे अपनी सारी खीस माई पर उतारते और दोष मढ़ते कि इतनी खातिरदारी का ही ये सब नतीजा है । लेकिन उसपर इसका कोई असर नहीं दीखा और वह अपने आतिथ्य-सत्कार में पूर्ववत लगी रही । लेकिन एक दिन मामा के सख्त बीमार होने की खबर सुनकर जब उसे अचानक रोते-गाते अपने नैहर का रूख करना पड़ा ,तब कहीं जाकर वह 'समस्या' हल हुई । रिश्ते जोड़ने और निकालने में भी उसका कोई जोड़ नहीं था । आपको सिर्फ कायस्थ भर होने की देर है, उसके बाद तो आपसे कहीं न कहीं से वह रिश्ता खुद ही जोड़-गाँठकर निकाल लेगी ।
माई और बाबूजी को लाल चाची और लाल चाचा का संबोधन किसने दिया होगा ,मुझे नहीं पता ,मगर आज भी खानदान के पुराने लोग उन्हें इसी नाम से याद करते हैं । अमुमन यह देखा गया है कि हर घर-परिवार में कोई-न-कोई शख्स एक केंद्र-बिन्दू की तरह होता है जिसकी उपस्थिति शादी-व्याह के मौके पर अनिवार्य सी होती है । उस शख्स के बिना सबकुछ फीका-फीका और बेरौनक सा लगता है । खानदान में सर्व-सम्मति से इस पद की अधिकारिनी लाल चाची ही रहीं । दरअसल, परिवार का मरकज होने के लिए सर्वगुण-संपन्नता जरूरी है । माई में एक साथ कई विशेषताएँ थीं । तब संयुक्त परिवार का जमाना था । चचेरे-फुफेरे-मौसेरे-ममेरे भाई-बहनों के साथ अपने-पराये का भेद-भाव नहीं था । बेशक आर्थिक धरातल पर अलगाव अंदर-ही-अंदर शुरू था लेकिन भावनात्मक संबंधों में अभी कोई दरार नहीं पड़ी थी । माई की खूबी यह थी कि उसका संबंध परिवार के हर छोटे-बड़े के साथ सहज और अपनत्व से भरा था । छकौड़ी भैया(बड़े चचेरे भाई)जब मुड में होते तो सामने पड़ते हीं माई को छेड़ देते--लाल छड़ी मैदान खड़ी .. क्या खूब लड़ी ,क्या खूब लड़ी ..और माई भी उनपर हँसते-हँसते कुछ-न-कुछ फिकरे कस ही देती । दरअसल, जन्म के समय एक टोटके के तहत उन्हें छह कौड़ियों में खरीदा गया था । भाइयों में सबसे बड़े वही थे । कोई भाभी नहीं थीं, शायद इसलिए हो सकता है ,माई उनके लिए चाची के साथ-साथ थोड़ी भाभी का मजाकिया रोल भी कर लेती थीं। अगर गलती से भी घर में किसी का किसी के लिए चचेरा शब्द निकल गया और माई ने उसे सुन लिया तो फिर उसकी तो खैर नहीं -उसका तो क्लास लगना तय था। अब अगर आज आपसे यह कहा जाये कि किसी लड़की की शादी के लिए उसके चाचा और फूफा जी बेहद चिंतित और परेशान हैं ,तो आप इसपर सहसा यकीन नहीं करेंगे और यह आपको एक मजाक सा ही लगेगा ,लेकिन यह उस जमाने में सौ फिसदी सच था । मेरे चाचा का मकान छपरा में था ।उनकी वहीं नौकरी थी । वह बाबूजी के चचेरे भाई थे । अगर परिवार में शादी के लिए किसी छपरा निवासी लड़के का पता-वता लगता तो दौड़-धुप की सारी जिम्मेदारियाँ उनके ही कँधे पर आ जातीं । बरतुहारी का उनका अंदाज भी निराला था- किसी जासुस की तरह और मूल-मंत्र था--चासा-बासा-दासा । उनदिनों खानदान की हर लड़की छपरावाले मकान से ही ब्याही गयी ।
आखिर माई में ऐसा क्या था कि इतने साल बीत जाने के बाद भी आज भी लोग याद करते हैं । इसबार भतीजे की शादी में जब गाँव पर था तो कई लोगों के मुँह से यह कहते सुना कि जबतक चाची जी थीं तबतक बात ही कुछ और थी .. सीवान वाले घर में बराबर आना-जाना था ..
घर की पुरानी यादों में एक घर और भी है जो सीवान के कागजी मोहल्ले में था और जहाँ माई के साथ मैं बचपन में अक्सर जाया करता था । उस वक्त मेरी उम्र करीब आठ-दस साल की रही होगी । तब सीवान में अपना घर नहीं था । ममहर का वह घर अब सिर्फ़ यादों में ही बसा हुआ है जो वहाँ से गुजरते हुए बेतरह याद आता है ..इसीपर एक घटना याद आयी ..रात के नौ बजे रहे थे कि अचानक घर का दरवाजा जोर-जोर से कोई पीटने लगा । बाबूजी जी गुस्से में आ गये--कौन है?.. बाहर से आवाज आयी--'खोल साला ऽऽ..खोलता है कि नहीं ऽऽ ' ..हमसभी डर गये । बस-स्टैंड का घर जहाँ शाम ढलते हीं पियक्कड़ों का जमावड़ा शुरू हो जाता है । बहुत डरते-डरते जब दरवाजा खोला गया तो यही 'कागजी मोहल्ले' वाले मामा जी बेतिया वाले मामा जी के साथ बाहर खड़े थे और दोनों बेतहाशा हँसे जा रहे थे ।
(क्रमशः)