...

5 views

ऊंचा ओहदा...
ऊँचा ओहदा....

मैं बस में चढ़ गया, मैंने नजर दौड़ाई की कोई सीट खाली मिल जाये, पर अकेली सीट कोई नहीं थी। एक डबल वाली सीट पर समझदार सा दिखने वाला आदमी बैठा था, मैं उसके पास गया।

सरकारी नौकरी लगने के बाद मैं दूसरी बार घर जा रहा था। मुझ पर नौकरी लगने का एक अलग ही घमंड सवार हो रखा था। मैंने पास बैठे व्यक्ति से कहा ,"श्रीमान जी अगर बुरा न मानें तो मैं खिड़की वाली साइड में बैठ जाऊँ ?" वो व्यक्ति जो पहले से खिड़की वाली साइड में बैठा था, उसने मुझे देखा और कहा " श्योर ..."

हम दोनों ने सीटें बदल ली। मुझे लगा कि शायद मेरी नौकरी का रौब मेरे व्यक्तित्व से झलकने लगा है , इसलिए इस आदमी ने मुझे खिड़की वाली सीट बिना किसी ना नुकुर के दे दी।

मुझे लग रहा था कि इसे मेरी नौकरी का पता चलना चाहिए , ताकि और रौब बने मेरा । मैं चाहता था कि काश ! कोई तो ऐसी बात हो जाए, मैं उसे बताने के लिए बेचैन हो रहा था।

अचानक मेरी मनचाही बात हुई , मेरे ऑफिस से बॉस का फोन आया । उन्होंने मुझसे दो तीन बात पूछी, और मैंने उन्हें जवाब दिया, मेरी बातें वो सहयात्री सुन रहा था , ये तो मैं समझ गया था। मैंने बात पूरी करके फोन काट दिया। अब मैं थोड़ा सीट पर और पसर गया।

"आप क्या काम करते हैं?" उस सहयात्री ने पूछा।
मुझे लगा कि मेरा रुआब उस पर चल गया है। मैंने बड़े ही गुरूर से उसे अपने विभाग का नाम बताते हुए बताया कि फलाँ सरकारी विभाग में नौकरी करता हूँ।

"किस पद पर हैं?" उसने फिर पूछा।

मैंने अपना पद बताया।

"तनख्वाह तो अच्छी मिलती होगी?" उसने एक और सवाल किया।

मैंने उसे अपनी सैलेरी से जस्ट डबल करके उसे बताया। "जी ….हजार है मेरी सैलेरी।" मैं झूठ बोला पर उसे लगा होगा इतनी ही होगी ।

"बहुत बढ़िया, क्या नाम है, आपका?" उसने एक सवाल और किया।

"XYZ नाम है मेरा।" मैंने बताया।

"सुना है आपके विभाग में माल खराब हो जाता है।" उसने कहा।

"नहीं जी बिल्कुल नहीं।" मैंने उसे अच्छे से कन्विंस कर दिया कि कोई माल खराब नहीं होता।

"सुना है आपके विभाग में चोरी भी कर लेते हैं कर्मचारी ? " उसने फिर शंका जताई।

"नहीं जी ऐसा कुछ नहीं है, कर्मचारी बहुत ईमानदार और निष्ठावान हैं, आपने गलत ही सुना है।" मैंने विरोध किया।

"रिश्वत तो जरूर मिलती होगी आपको...." उसने फिर से मुझे गुस्सा दिलाया।

"आप कैसी बातें कर रहे हैं श्रीमान ? ऐसा कुछ नहीं है, लोग यूँ ही बदनाम करते हैं । विभाग में बढ़िया सैलेरी मिलती है , कोई भी गलत काम हम लोग नहीं करते , न जाने क्यूँ लोग बेमतलब की बातें बनाते हैं।" मैंने थोड़े ताव से कहा।

उसके बाद उसने कोई सवाल न किया। मैं भी अपने कानों में इयर फोन लगाकर गाने सुनने लगा। मुझे लग रहा था ये कोई व्यापारी या ठेकेदार है जो इतने सवाल कर रहा है, मैंने उससे बात न करना ही बेहतर समझा।

हम कोई तीन घण्टे के सफ़र में साथ रहे, उस सहयात्री ने अपने बैग वगैरह बस के लगैज कैरियर से उतारने शुरू किए। मुझे लगा वो उतरने वाला है उससे भी तो पूछ लूँ आखिर वो क्या करता है।

मैंने टोंट वाले लहज़े में पूछा , "श्रीमान ! आपने तो मेरे बारे में सब पूछ लिया , आप भी बता दीजिए आप क्या करते हैं।"

"भाई XYZ , मैं भी तुम्हारे ही विभाग में डिप्टी जनरल मैनेजर हूँ , '…..'नाम है मेरा । वैसे अच्छा लगा, तुमने विभाग की छवि बेहतर बनाने के लिए अच्छे तर्क दिए।" ये कहकर वो आदमी बस से उतर गया।

उसका नाम मैंने कहीं तो देखा था दिमाग पर ज़ोर लगाया तो याद आया मेरे नियुक्ति पत्र पर तो इसी नाम के सिग्नेचर थे। मेरे तो होश ही उड़ गए, मैं अपने डिप्टी जनरल मैनेजर के सामने कितनी डींगें हाँक रहा था और सैलेरी भी झूठ बताई । डिप्टी सर मुझ पर मन ही मन कितना हँसे होंगे ? मैं शर्मिन्दा था कि झूठी बड़ाई के चक्कर में मैंने इज्जत का पलिदा करवा लिया । अगर मैं उनसे पूछता नहीं तो वो तो बताते भी नहीं कि वो इतने बड़े ऑफिसर हैं, अब मुझे समझ में आ रहा था कि वो इंसान इतने बड़े पद पर क्यों है, क्योंकि वो शालीन और सभ्य आदमी हैं । यदि मुझे भी उनकी तरह किसी ऊँचे ओहदे पर पहुंचना है तो उनके नक़्शे कदम पर चलते हुए सभ्य व शालीन बनना होगा और झूठी शान बघारने की आदत छोड़नी होगी ।

संजय नायक 'शिल्प'
© All Rights Reserved