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बीस से तीस
ये बीस से तीस का उम्र थोड़ा बेईमान है। बाप से बात करने की अदब है नहीं इसे, पर प्रेमिका की खुशामद में कोई कमी नहीं। बाप से बेरुखी का मंजर जो लंबा चल गया तो जिंदगी भर अफसोस के पात्र बना रहे। वैसे भी दोस्त जाते रहें और इसे कोई परवाह है?

तन्हाइयों का सागिर्द बनाता ये जमाना भी कुछ कम नहीं, ऊपर से शहर का माहोल। ये युवा करे भी तो क्या करे, दिखावा भी तो करना है और बदले में दुखों का पहाड़। दुख भी बड़ी सब्जेक्टिव है, हर कोई बहाना ढूंढ ही लेता है दुखी होने का। मार्ग ही इतना सरल है।

फिटनेस में मां बाप की बराबरी करता ये उम्र, आलस के बोझ तले दबा। दो चार कदम चल क्या लेता, पूरी दुनिया में ढिंढोरा पीटता फिरे। और कहीं गलती से योग कर लिया तो जी बस मत ही पूछो, पूरा सोशल मीडिया भर देगा ये प्राणी। फोमो की अलग बीमारी लगी रहती है इन्हे। और पता नहीं किस बात का घमंड है इसे, हर समय ऐंठ में।

थोड़े पैसे कमा लिए, थोड़ा ज्ञान पा लिया और थोड़ी बकैती मार ली की बस अब किसी को कुछ समझते ही नहीं। सब के सब कन्वर्सेशनल नार्सिसिस्ट बने जा रहे हैं। ना की ताकत इनको पता चल गई है तो नया नया ना का मजा ले रहे हैं। पर ना सुनकर बड़ी सुलगती है इसकी।ऊपर की जेनरेशन बेवकूफ और नीचे की जेनरेशन उदंड घोषित कर रखी है इसने। मैं सुनरी पिया सुनरी अ गांव के लोग बनरा-बनरी।

समय समय पर मन के उधेडगुन से लड़ता भी रहता है। दया का पात्र बनता जा रहा है। इस दिखावे को छोड़, एकांत का मजा चखने लगा है। अगले पड़ाव पर शायद इसका भला हो जाए।


© अंकित राज 'रासो'