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धन और ऋण
तुम और मैं.. धन और ऋण की तरह हैं।
कुछ जुड़ गया है इस बंधन में, तो कुछ घट गया है। तुम 'शून्य' और मैं 'एक' हूँ। जैसे ही तुम मुझसे जुड़ते हो मेरा मान बढ़ जाता है, मेरा कद ऊँचा हो जाता है।
हाँ, मगर तुम्हारे और मेरे मध्य कुछ भी समानार्थी नहीं सब विपरीत है। तुम मेरे पर्यायवाची नहीं विलोम हो।
तुम 'सम' और मैं 'विषम' हूँ।
तुम 'प्रकाश' हो अगर, तो मैं 'अंधकार' हूँ। तुम्हें 'संयम' भाता है और मैं 'तर्क' करती हूँ। तुम नए ज़माने के मैं पुरानी सोच की। तुम 'सीधी गिनती' हो, मैं 'अटपटा पहाड़ा' हूँ। तुम 'अक्षर' हो अगर, तो मैं उसकी 'मात्रा' हूँ। तुम्हें 'तारे' अत्यधिक प्रिय हैं, मुझे चाँद से 'प्रेम' है। तुम गुलाब पसन्द करते हो मुझे गुलमोहर से प्रेम है। तुम्हें 'बारिश' भाती है और मुझे 'सर्दी'।
तुम सुबह का 'पहला पहर' हो और मैं रात का 'अंतिम पहर'। तुम 'प्रेम की मूरत' हो, मैं 'क्रोध की सूरत' हूँ।
तुम 'जटिल विज्ञान' हो, मैं 'कला पसन्द' हूँ। तुम 'हिंदी' जैसे 'सरल स्वभाव' और मैं 'गणित' जितनी 'जटिल' हूँ।
तुम 'किलकारी' हो जिस बालक की, मैं उसका 'रुदन' हूँ।
तुम मुझसे हर एक पहलू में बेहतर हो और मैं केवल तुम्हारी विपरीत 'छाया' हूँ।
मगर, यही अंतर सृष्टि में भी है जो उसे पूर्ण करता है। ठीक वैसे ही जैसे तुम मुझे और मैं तुम्हें पूर्ण करती हूँ।
~रूपकीबातें❤️
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