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बाबूजी का चश्मा
    अभी कुछ दिन पहले की ही बात है. जैसे ही बाबूजी खाट के नीचे पड़ी अपनी पीकदानी उठाने को झुके, कुर्ते की जेब में रखा उनका चश्मा  गिर कर टूट गया . वो कभी टूटे चश्मे  को कभी जेब खर्च में मिले बचे हुए पैसों को देखने लगे.  इतने पैसों में तो चश्मा बन नहीं सकता इसलिए किसे बोले यही सोचने लगे.बाबूजी के आंखों के सामने एक के बाद एक सारे बेटों का चेहरा घूम गया. बाबूजी काफी साल पहले रिटायर हो चुके हैं. अब घर बेटों के कमाई के चंदे से चलती है. चंदा यानी सभी बेटे अपना - अपना रोना रो कर  जो जेब से निकाल कर दे दें उस से चलती है. बदले में मां रोज बेटों से महगांई गाथा और कम आमदनी का रोना सुनती है और बहुओं से किसके पति ज्यादा तकलीफ से कमा कर अपना सारा पैसा उन पर लुटा देते हैं, कि सुवाणी सुनती है. रात के भोजन पर पिता ने बेटों की भीड़ ( संख्या मायने नहीं रखती अगर लायक हो तो एक ही काफी है नहीं तो भीड़ ही हैं सब)   से अपनी चश्मा व्यथा सुनाई. किसी ने अनसुना कर दिया. तो किसी ने हाथ खाली होने की मजबूरी बता  कन्नी काट लिया. कल बाबूजी का बाथरूम में गिर जाने से देहांत हो गया.आज उनके बेटे श्रद्धा भाव से आपस में चंदा कर उनके श्राद्ध कर्म के लिए उनके प्रिय वस्तु दान कर ब्राम्हणों को और बिरादरी वालों को जिमा रहें हैं. पिताजी के जेब में बची आखरी जेब खर्च के  चंद रूपयों को उन्होंने श्रद्धा भाव से फ्रेम कर हॉल में  उनकी याद में लगा रखा है.  उनके टूटे चश्मे को शो केस में  उनकी याद के रूप में सजा कर रख दिया गया है. आखिर पिता से ज्यादा जरूरी उनकी यादें ही तो हैं. जिन्हे अब उन्हें संभालना है.

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          कैसी विडम्बना है ये, क्यों  मां बाप की आधारभूत आवश्यकता भी पूरी करना उन बच्चों के लिए भारी हो जाता है. जिनकी खुशियों के लिए मां बाप ने सारी जिंदगी अपनी जरूरतों को काटा है.  हमारे समाज की संरचना कैसी अजीब है जहां जिंदगी में एक ऐसा दौर आता है जब  माता– पिता अपने ही शादीशुदा बच्चों के जीवन में प्राथमिकता नहीं रखते. हां कुछ अपवाद भी हैं पर उनकी संख्या सागर में एक बूंद की तरह ही है बस.
© Ranjana Shrivastava