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१९९४ का क्रिकेट
१९९४ का साल और महीना अप्रैल का । उन दिनों भी वित्तीय वर्ष के समापन के बाद जश्न का माहौल हुआ करता था । यह जश्न हमारी समझ से परे हुआ करता था । हमारे लिए तो छुट्टी की घंटी ही शानदार जश्न की शुरुआत हुआ करती थी । शायद पहली बार मारवाड़ी पाठशाला में खेलों की प्रतिस्पर्धा का आयोजन किया जा रहा था । हमारे लिए खेल में जीतना कुछ अलग तरह से मायने रखने जा रहा था । खेल जितने से ज्यादा महत्व सहपाठिनियों का दिल जीत लेना था । खेल तो महज एक मौका था रूबरू होने का । उन दिनों भी क्रिकेट की दीवानगी आज की तरह सर चढ़कर नाचा करती थी। हम सबमें क्योंकि सुरेश कुछ ज्यादा जवान दिखा करता था शायद इसलिए टीम का कैप्टन उसे ही चुना गया था । आम खेलों की तरह कैप्टन चुनने पर होनेवाले लड़ाई का कोई उपाय शेष नहीं रह गया था । खेल का आयोजन स्थल सेंटर का वह ऐतिहासिक मैदान चुना गया जहां मारवाड़ी इंटर कॉलेज की शुरुआत की गई । बस पास ही सेंटर का मैदान था । साल १९९४ का था और महीना अप्रैल का । हमारा मैच ९ वीं कक्षा के साथ था और हम ८वीं के सेक्शन ८ के खिलाड़ी हुआ करते थे । खेल हमारी रग रग में बसा करती थी । हर तरह के खेल खेला करते थे हम उन दिनों । बस दांव पेंच के खेल का इजाद नहीं हुआ था उन दिनों । खैर , मैच जीतना ज्यादा जरूरी बस इसलिए था कि हमारी इज्ज़त बरकरार रहे । निर्धारित दिन पर हमारा मैच शुरु हुआ और हमारा कैप्टन सुरेश देशी घी के लड्डू गणेश जी को चढ़ाकर पीच पर डट पड़ा । टॉस हम जीत चुके थे । पहली गेंद पर पहला छक्का और बॉल झाल मूढ़ी वाले के प्लास्टिक के डब्बे में । एक के बाद हरेक बॉल पर रनों की बौछार करते हुए सुरेश ने सेंचुरी मारकर अपनी और अपने टीम की इज्ज़त पर तो चार चांद लगा लिया मगर अब व्यक्तिगत स्कोर का भी चैलेंज था और फिर सबने कुछ न कुछ स्कोर कर ही लिया । कुल मिलाकर हमारा स्कोर 210 रनों का था । अब अगली बैटिंग विरोधी टीम की शुरू हुई और हमारी धुआंधार बॉलिंग ने 100 रनों के भीतर ही सबके विकेट ले लिए । मैच हम जीत चुके थे मगर दर्शक भी केवल हम ही थे । अब इंतजार था उस दिन का जब सबके सामने हमें ट्रॉफी दी जानी थी । आयोजन काफी शानदार किया गया । इससे पहले कभी ऐसा आयोजन नही किया गया था । हमारे क्लास टीचर दुर्गानंद झा सर थे और हमारी जीत पर काफी गर्वित थे । सबके सामने उन्होंने हमारे प्रिंसिपल सर सी पी सिंह सर के हाथों से ट्रॉफी हमारे कैप्टन को सुपुर्द किया और हम सभी खिलाड़ियों को एक प्रमाणपत्र प्रदान किया । यह प्रमाणपत्र आज हमारे लिए एक ऐतिहासिक धरोहर है उन पलों का जिसे हमनें एक बिंदास हीरो की तरह जीया । दुर्गानंद सर के सानिध्य में हमारे आनेवाले भविष्य की नींव पड़ी जिसे उन्होंने अपने प्रेमरूपी शिक्षा रस से सींचा । बिना फीस लिए अमूल्य शिक्षा बस उन दिनों ही और उन जैसे महान आत्मा वाले शिक्षक ही दे सके । निर्धनता का बोझ लिए एक अबोध छात्र के लिए गुरु ही इश्वर होता है । वो रास्ता जो गुरु दिखा सकता शायद और कोई नही दिखा सकता । क्रिकेट मैच का जीतना और जिंदगी के संघर्ष में जीतने की प्रेरणा भले ही कुछ और रहे मगर इस प्रेरणा का असली पोषण बस गुरुदेव द्वारा दिए गए अदृश्य परंतु जीवंत शिक्षा से ही होता है । आज हमारी पूरी टीम भले भी बिखरी पड़ी हो मगर जिंदगी की मैच में हमारी टीम एक ही प्रेरणा से प्रेरित होकर जीतती आ रही है । वह साल १९९४ का था और यह साल २०२१ का है । २७ सालों का लंबा सफ़र जैसे पलों में पूरा हो गया । हमारा शरीर भले भी समय के साथ आगे निकल रहा मगर हम आज भी उसी मोड़ पर खड़े वही मैच खेलते जान पड़ते हैं बस पीच बदली बदली सी है ।
© राजू दत्ता