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होड़🏃🏃
अब मुझे वास्तव में यकीन होने लगा है कि शायद यह मेरे ही नजरिए का ही दोष है और मुझे ही इसे सुधारने की आवश्यकता है।
पढ़ा भी तो है कि यह ब्रम्हांड एक आईना है और जैसी उर्जा हम इसकी ओर प्रवाहित करते हैं वैसे ही वह हमारी ओर परिवर्तित कर देता है ( Universe is a mirror, it reflects back whatever you direct towards it.) और यह भी कि जो दोष, त्रुटियां जो हमें दुसरो में नजर आती है वो कहीं न कहीं, हममें ही निहित होती है दुसरे तो केवल माध्यम भर है हमको हमसे ही मिलाने का...

हां, तो अब असली मुद्दे पर आते हैं फिलहाल यह हाल है कि मुझे अक्सर दैनंदिन जीवन में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा, होड़ के दर्शन होने लगे हैं । मैं कोशिश करता हूं कि मैं इससे बच जाऊं, किनारा कर लूं ,पर यह यक्ष प्रश्न की तरह बार - बार मेरे सामने आ खड़ा हो जाता है ! अल्पसंतोषी व्यक्ति हूं ,भव्य महात्वाकांक्षाएं नहीं रखता, यह नहीं है कि स्पर्धा के विरुद्ध हूं। स्पर्धा का अपना महत्व है , स्वस्थ स्पर्धा उत्तेजक का कार्य करती है वहां होड़ की बात कुछ समझ में आती है पर दैनंदिन जीवन की छोटी-छोटी बातों में जब यह होड़, यह प्रतिस्पर्धा झलकने लगे तो चिंता सी होने लगती है।

एक साधारण सी घटना से सुरुवात करते हैं गर्मी के दिन हैं लोकल से सफर कर थकान सी महसूस हो रही है प्यास भी लगी है, पास पानी था वह खत्म हो गया। साथ पत्नी और बेटी भी है उनकी भी यही अवस्था है। सामने स्टेशन पर कुलर दिखाई दे जाता है खाली बोतल लेकर कुलर पर पहुंच जाता हूं। एक महिला पानी भर रही हैं बगल में एक और दो लोग खड़े हुए हैं मैं भी खड़ा हो जाता हूं। महिला पानी भर कर हट ही रही है दुसरे एक सज्जन सिर्फ पानी पिना चाहते हैं उन्हें पानी भरना नहीं है ठीक है मैं उन्हें कहता हूं कि वे पानी पी लें तब मैं बोतल भरता हूं यह सब घटित हो ही रहा है कि एक महाशय सीधे आकर मुझको करीब- करीब ढकलेते हुए सीधे कुलर की ओर बढ़ लेते हैं उनके लिए अन्य किसी का कोई अस्तित्व ही नहीं है उनको तो सिर्फ अपनी जरूरत से स्नेह है।
उनका काम हो जाय कोई जिये या मरे इससे उन्हें कुछ लेना देना नहीं है।

कट - सिन २ :
लाक - डाउन का अवधिकाल चल रहा है । सब बंद है बाजार में अतिआवश्यक चीजों की दुकाने कुछ ही समय के लिए खुल रही है सोशल डिस्टेंस रखकर खरीद फरोख्त करना है दुकान पर भी भीड़ है बाहर बैरिकेड है उसके बाहर रहकर ही सामान लेना है मेरे आगे दो लोग सामान ले रहे हैं मैं सोशल डिस्टेंस रखकर इनके पीछे खड़ा हूं अपने नंबर के इंतजार में... तभी एक मोहतरमा " एक नारियल देना" कहती हुई सबको नजरअंदाज करतीं हुईं सोशल डिस्टेंस की ऐसी - तैसी कर बैरिकेड तक घुस आतीं हैं और तब तक अपना स्लोगन दोहराती रहतीं हैं जब तक दुकानदार सब कुछ छोड़कर उन्हें नारियल नहीं दे देता है। उन्हें अपने नारियल से मतलब है नारियल ही उनका विश्व है। करोना, और लोग ,उनकी समस्याए उनके लिए नगण्य हैं। मैं और मेरी जरूरतें... किसी भी किंमत पर पुरी होनी ही चाहिए और लोग चाहे जिए या मरे...
उदाहरण और भी हैं कई... गाड़ी बीच सड़क पर खड़ी कर खरीदारी करना, गाड़ी से उतरना न पड़े चाहे पुरा ट्रैफिक जाम क्यों न हो जाए... मेरी बला से... इत्यादि, इत्यादि।

अब इस मानसिकता को जो भी नाम देना है दे दिजीए- आत्मकेंद्रित, प्रतिस्पर्धा, होड़, स्वार्थपरता.... पर चिंता इस बात पर होती है कि यह अब छोटी-छोटी बातों में भी काफी तीव्रता से महसूस होने लगी है ।

पर फिर यह भी ख्याल आता है कि शायद यह मेरे नजरिए का ही दोष है क्योंकि अन्य किसी को तो यह नहीं महसूस हो रहा है सिर्फ मुझे ही यह परेशानी है...तो इस लिए समस्या का कारण भी अवश्य ही मुझमें ही कहीं अंतर्निहित है ...

तो अब निष्कर्ष क्या है ? सच कहूं तो मैं भी नहीं जानता।
पढ़ा था कि हर प्रश्न का उत्तर भी हमारे ही भीतर है हमें खोजने की आवश्यकता है तो अन्वेषण जारी है....

- ओम ०३.०२.२०२१ ॐ साईं राम 🌹🌹