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सर्दियों में शाम के साढ़े पांच बजे
शाम के साढ़े पांच बज रहे थे, हल्का हल्का अंधेरा हो चुका था और बस स्टॉप पर भीड़, बस का इंतजार ऐसे कर रही था, बिल्कुल वैसे जैसे कभी लोग पिक्चर हाल के बाहर गेट खुलने का इंतजार किया करते थे ।
तभी बस आई । बड़ी मुश्किल से सबसे आखिर में कंडक्टर ने मुझे एक हाथ से धक्का देकर अंदर धकेलते हुए, अपनी दो उंगलियों को जीभ के बीच रखकर सीटी बजाई और बस चलने लगी ।

गर्मियों और सर्दियों के मौसम में सार्वजनिक बसों में सफर करने का अनुभव बहुत अलग अलग होता है । जहां गर्मियों में बस के अंदर लोग पसीने से भीगे हुए रहते हैं और उनका खुशबू वाला डिओडरेंट केवल सुबह पांच मिनट काम करता है । वहीं सर्दियों में गर्म कपड़े पहने सभी यात्री एक दूसरे से सटकर, कभी कभी एक दूसरे की पीठ पर नींद भी पूरी कर लेते हैं ।

गर्मियों में शाम देर से होती है तो बस में घुसते हुए दिमाग हमेशा गतिशील रहता है मगर सर्दियों में ऐसा नहीं होता । शाम जल्दी हो जाती है और साढ़े पांच बजे बस में घुसते ही बाहर सिर्फ बस कुछ दुकानों पर चमकती हुई झालर दिखाई देती हैं । कंडक्टर भी किसी expert professional की तरह बीच में से निकलते हुए किसी सांप की तरह हर यात्री को टिकट देने के लिए पहुंच ही जाता हैं । आंखें बंद होने लगती हैं और ड्राइवर के लगाए 90's के गाने भी कानों को अच्छे लगने लगते हैं ।
और अगर गलती से window वाली सीट मिल जाए तो फिर शीशे पर सिर टिकाकर ऐसा महसूस होता है बस ये सफर और गाने यूंही चलते रहें .....

ये शाम मस्तानी, मदहोश किए जाए
मुझे डोर कोई खींचे, तेरी ओर लिए जाए.........

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