...

10 views

घिसी चप्पल
पूरी तरह घिसी हुई चप्पल जिसके भीतर के परतों का रंग भी अंगुलियों की लगातार घर्षना से बाहर आने को शेष न बची हो । इस पूरी तरह घिसी चप्पल ने अपनी परत दर परत को उधेरकर मानो अपना वक्ष फाड़कर सबकुछ दिखा देने का निश्चय कर रखा था । कुछ शेष न बचा था अब छिपाने को । वक़्त के थपेड़ों ने उस चप्पल को जर्जर से जर्जरतम अवस्था में लाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी । कई तरफ़ से फैल चुकी उसकी फीतों का आकार चीख - चीख कर यह बता रहा था कि लगातार धूप और बारिश में फटे पांव और चप्पल को जोड़े रखने के प्रयास ने उसे लगातार बार - बार कितनी असहनीय पीड़ा दी थी । फीते के पस्त होते हौसले को कहीं - कहीं से आलपिन लगाकर बुलंद करने की कोशिश की गई थी । न जाने कितनी कीलों को अपने जेहन में छिपाए वह जर्जर चप्पल अब भी घिसी जा रही थी । चलते - चलते फीते के अगले सिरे का बार - बार खुल जाना मानो उसकी बार - बार उखड़ती सांसों का आभास दे रही होती । उस जर्जर चप्पल ने मानो न जाने कितना बोझ उठा रखा था । बोझ था उस जर्जर होते शरीर का जिसने उसको धारण कर रखा था । उस कंकलरूपी शरीर को देख यह कतई नहीं कहा जा सकता कि उसके लेशमात्र बोझ से चप्पल इतना घिस सकता है । नहीं , यह इसके बोझ से इतना नहीं घिस सकता । जरूर यह बोझ जर्जर होते उस शरीर की उस भारी और वजनी आत्मा का था जिसने सारे समाज की अवहेलना, दुत्कार , तिरस्कार और भी न जाने कितने अनगिनत निष्ठुर और भारी भावों जैसे अनंत बोझ को उठा रखा था । उसकी चप्पल निश्चय ही उसके शारीरिक बोझ से नहीं बल्कि उसकी आत्मा के उसी अनंत भार से घिस - घिस कर अपनी एक - एक परतों में उस असीम संघर्ष और संतापों को तह करके संजोए हुए था । वह चप्पल अपने आप में समस्त समाज का बोझ लिए पूरे समाज को प्रतिबिंबित कर रहा था ।