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सिन्दूर औऱ गुलदस्ता प्यार का
हा ये सच हैं, बंजर ज़मीन थीं मैं। तुमनें अपनें प्यार के बारिश से मुझमें जान डाल दी, सिखाया मुझें तुमनें प्यार करना। पर वो तुम ही तों थें जिसने मेरी कोख में अपनें प्यार की निशानी दे कर अपनें कैरियर कों बनाने के लिए साथ मेरा छोर दिया औऱ जो बाहर नम आँखों से एक आस लिए खड़ा हैं,
उसने बिना किसी स्वार्थ के मुझें मौत के मुह से निकाल कर साथ फेरे संग साथ वचन का साथ निभा के, प्यार की बारिश पे बारिश लुटातें गए औऱ मैंने उनकों एक बूंद भीं प्यार नहीं दी, तुम्हारें लिए दिल में मेरे बसीं प्यार के वजह से। प्यार करना तुमनें सिखाया पर निभाना उन्होंने सिखाया औऱ तुम्हारें प्यार की निशानी कों उन्होंने गले से लगाया, पिता होने का हर फ़र्ज़ निभाया। औऱ आज़ आए हों तुम अपना हक्क लेने, इतने सालों बाद,
लिए हाथों में फ़ूलों का गुलदस्ता, पर खड़े हैं वो बाहर सिंदूर लेके, साथ प्यार का सौगात लिए उम्र भर के लिए औऱ वो भी बिना किसी हक्क जताएं, बस एक उम्मीद लिए चुप के से अपने दिल में दबाये... अब सोचों तुम ही मैं किसे अपनाउंगी!!
तुम्हारें गुलदस्ते कों या अपने पति के सिंदूर कों!!
"आरोहण" कों कह के ये सारी बातें पीछे मुड़ के "प्रियम" नें अपने पति प्रियांच कों देखा मुस्कराते हुए।।
© संगीता डेका ❣