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" नासमझ "
" नासमझ "

यह कहानी एक ऐसे परिवार की है, जो नासमझ, रूढ़िवादी के बंधनों में क़ैद हैं । यह वह धर्म की स्थापना है जहाँ पर्दे के बिना एक नन्ही सी जान जो अभी-अभी इस संसार में कदम रखा है, जिसे दुनियाँ की समझ ही नहीं। वह यह भी नहीं जानती कि वह कौन है?

उसके इर्द-गिर्द चहलकदमी करने वाले कौन हैं?
उस मासूम को भी सर खुला रखने की गुंजाइश नहीं है। पैदा हुए नन्ही सी जान के सिर में अभी पूरी तरह बाल भी नहीं उगे हैं।

उसके सिर पर पर्दा का बोझ रख दिया जाता है, जिसे देखकर दूर से ही क़ौम ज़ाहिर हो जाता है।
एक ऐसे परिवार में जन्मी लड़कियों का जीवन इतना भी आसान नहीं होता है।
वैसे देखा जाए तो लड़कियाँ जिस भी समाज की हों उन पर बंदिशें असमानताएं जरूरत से अधिक ही किया जाता है जो उचित नहीं।

आज की ईक्कीसवीं सदी में भी इतनी पाबंदी हम लड़कियों पर भला क्यों लगाते हैं कि उन्हें कैदियों की मानिंद अपने पैदा हुए परिवार की अवहेलना, तिरस्कार से गुजरना होता है।

कुछ परिवार में परिवर्तन आया तो है कि लड़कियों को शिक्षा देने लगे हैं। वे खुद को सभ्य समाज की गिनती में रखते तो हैं परन्तु बंदिशें आज भी चर्मपंथियों द्वारा चर्म सीमा पर विराजमान हैं।

कुरीतियों का बढ़ चढ़ कर बोलबाला है।
क्यों हम आज तक उन जंजीरों के खूंटे से बंधे हुए हैं जैसे जन्म लेने का अधिकार नहीं है।
हमारे समाज में लड़कियों को स्वातंत्र्य रुप से स्वांस लेने का न हक़ होता है और न ही पैदा होने के बाद।

कितनी अजीब कुरीतियों के बोझ तले बेबसी की मार झेल रहे हैं इन लड़कियों का घुटन भरा हुआ दर्दनाक के साथ शर्मनाक सफ़र औरत बनने तक अब तक क्यों जारी है?

कोई परिवार के सदस्यों द्वारा बलि चढ़ाईं जाती हैं तो कोई आत्महत्या कर लेती हैं तो कई हत्यारों की भेंट चढ़ जाती हैं।

कब बदलेगी हमारे कुरीतियों की धारणाओं को अपनाने वालों की सोच में होगा बदलाव?
कब हम खुद के लिए और अपने लिंग के लिए उत्तम सोच और उचित कदम उठाएंगे?

अगर इतना पुरुष लिंग के लिए भी बंदिशें होंती तो हमारे समाज का परिदृश्य ही कुछ और होता!

गर उन्हें यह सिखाया जाता कि लड़कियाँ कोई हवस का सामान नहीं हैं।
गर हर बेटे को यह शिक्षा दी जाती कि वह लड़कियों की इज्ज़त करें और लड़कियाँ भी समाज में इज्ज़त से एवं स्वातंत्र्य रूप से जीने का हक़ रखतीं हैं।

पर्दा गर पुरुष को करने का चलन होता तो लड़कियों को विश्व में विवश नहीं होना पड़ता।
हर बेटी खुश होतीं और परिवार की बंदिशों से आजाद होतीं।

चलो आज एक ऐसे समाज का निर्माण करने की पहल की जाए कि बंदिशें हों और ना तो पर्दे का चलन हों। दोनों ही लिंग चाहे वह पुरुष
हो चाहे स्त्री दोनों अपना कर्तव्य निभाने की कसम खाएं।

यह खूबसूरत एहसास आज गणतंत्र दिवस के अवसर पर अपने विचारों की शुद्धता के साथ कसम उठाएँ की पर्दा प्रथाओं से देश की हर स्त्रियों को आजादी दिलाएंगे।

जय हिंद,
वन्दे मातरम!

🥀 teres@lways 🥀