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डुप्लीकेट विल - रंजन कुमार देसाई
जयंती लाल का देहांत हुआ था. ऊस वक़्त रिखव अदालत में एक अहम केस में व्यस्त था. वह क्रिमिनल एडवोकेट था..

अभी पिछले ही महिने ऊस ने मात पिता के आशीर्वाद के साथ अपनी कारकिर्दीका प्रारम्भ किया था.

सबूत न होने की स्थिति में कई बार निर्दोष अपराधी को सजा उठानी पड़ती हैं.. रिखव यह सच्चाई जानता था.. वह सदैव अदालत के पिंजरे में खडे किये गये अपराधी के लिये ही मुकदमा लडता था.

विजय नाम के एक शख्स को ऊस के ही पिता कई कत्ल के इल्जाम में अदालत के कठघरे में खड़ा किया गया था. वह बिल्कुल बेकसूर था. खून ऊस की सौतेली मा और ऊस के आशिक ने मिलकर किया था. विजय खुद इस घटना का चश्मे दिल गवाह था. लेकिन सारे सबूत ऊस के खिलाफ थे.

विजय ऊस का कोलेज कालिन दोस्त था.

पहली नज़र में ही ऊस ने निर्दोष होने का एहसास दिलाया था!! ऐसे रहम दिल युवान में चींटी मारने की भी क्षमता नहीं थी.. वह भला अपने पिता की हत्या कैसे कर सकता हैं?

रिखव बिल्कुल नया खिलाडी जैसा था.. इस लिये ऊस ने अच्छे वकील को रोकने की सलाह दी थी : एक महिने की अवधि में ऊस के पास मामूली केस आये थे.

विजय की मा बड़ी पहुंची हुई माया थी.. वह अपने पैसों के बलभूते कोई भी वकील को रोक लेगी. इस लिये विजय ने उसे अपना केस लड़ने की गुजारिश की थी. रिखव को अपने दोस्त की ईमानदारी पर गुमान था.. और ऊस के सिवा कोई उसे बचा नहीं पायेगा इस बात का भरोसा भी था.

विजय की जुबानी के आधार पर जांच पड़ताल की परवानगी लेकर कार्यवाही शुरू कर दी थी. फरियाद पक्ष के वकील के मुद्दे पर नज़र रखते हुए विजय की मा को दोबारा कोर्ट के कठघरे में बुलाया था. उलट तपास में रिखव को एक छोटी सी कड़ी हाथ लग गई. और सारा मुआमला सुलझ गया. विजय की मा ने पैसे के लिये अपने पति को रास्ते से हटा दिया था उसका इकरार कर लिया था और विजय को मानभेर छोड़ दिया गया था.

अंतिम घड़ी तक रिखव के पराजय की आगाही कर के ऊस की मजाक करने वाली वकील मंडली केस की काया पलट होते ही चकित रह गये थे.

विजय ने तहे दिल से अपने दोस्त का शुक्रिया अदा किया.. और फी की राशि अपने दोस्त के हाथो में थमाने का प्रयास किया लेकिन रिखव ने पैसे लेने से इंकार किया और चुपचाप कोर्ट से बाहर निकल गया.

उसे स्मशान जाना था.हाथ के इशारे से टेक्सी को रोक लिया. और दरवाजा खोलकर भीतर बैठ गया. ड्राइवर को सूचित किया.

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