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आप स्वयं
समुद्र का रहस्य,
कोई लहर को जो हो ज्ञात,
की वह गिर गिर स्वयं कुछ चोटिल ना होता,
तथा रुधिर केवल नीर का घट रहा,
तब क्या वह धरती को ललकारेगा?
अथवा बूंदों में विच्छिन्न हो कर,
टूटना बाधित कर मृत्यु को तारेगा,
अथवा, जीवन का नाश करने,
स्वयं हो जाएगा पाषाण,
टूट जाता जो नमक कणों में,
पीठ के बल गिर कर अथवा उत्थित,
हो रासायनिक विपदा उस क्षण समस्थित,
जाकर तब मानव कृत्य से,
कहीं टूटती उसकी भी ललक,
क्योंकि लावण्य मुख को शोभा दे,
पर अन्य को मापन हो ज्विहा,
यह खारापन त्यज्य ही नहीं विवशता भी,
अपितु दिग्विजय होता जाता अनंत,
अनिश्चित मर्यादा के संग,
जो केवल मद ही उसका अंग,
श्रवण करें तो क्षितिज की भी कुछ प्रार्थना है,
वह छुए केवल एक बार,
वह कमल कर,
ज्वार भाटे का हाथ पकड़ कर,
जिससे नभ भी कुछ सितारों की वर्षा कर,
टापुओं का निर्माण कर दे,
जिस पर वह भी कभी करें विश्राम,
सिद्ध करने परलोक इस परमार्थ से,
क्या पुकार ले श्रीराम एक सेतु के,
निर्माण हेतु,
करने चक्षुओं से प्रकाश का साक्षात्कार,
यदि हो पिपासा केवल ज्ञानार्जन,
पर धर्म नहीं आधार,
हो समुचित आचरण का अभाव,
जड़ में नहीं,
श्वास, काल काल गिन,
ज्यों ज्यों मनुष्य सूत रहा कात,
त्यों त्यों घटे कपास,
चेतन का भी शिक्षा ग्रहण,
वस्तुत एक पराभाव,
जैसे शीश,
अपने धड़ में नहीं

-प्राची शर्मा
© Prachi Sharma