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"आलू की सब्जी"
साजिद का पढ़ने लिखने में बिलकुल भी मन नहीं लगता था,उसके अम्मी और अब्बा परेशान हो चुकें थें उसे समझा समझा कर मगर साजिद के कानों में तो जैसे जूं तक न रेंगती थी।
साजिद के बड़े दो भाईयों की कपड़े की बहुत बड़ी दुकान थी और वो काफी अच्छी मुनाफा भी देती थी,वो दोनों स्नातक होने के बाद से ही कपड़ों का व्यापार संभाल रहे थे,खुद साजिद के अब्बा की गहनों की अपनी दुकान है , वो चाहते थे कि साजिद कुछ पढ़ लिख जाए तो वो भी अपना कुछ व्यापार संभाल ले लेकिन ८ वी के बाद उसनें अपने हाथ खड़े कर लिए कि उसे और नहीं पढ़ना,तो उसके अब्बा ने उससे कहा कि ठीक है फिर तुम भी अपने बड़े भाईयों की तरह कुछ करो तो ठीक नहीं तो इस तरह निठल्ले बैठे न रहो ।
दिन गुज़रते रहे और साजिद अभी तक कुछ भी नहीं कर पाया था।
उसके अब्बा आए दिन उससे कुछ न कुछ कह देते,जिससे घर में कोई न कोई कलह होती रहती थी।
साजिद को खाने में आलू बहुत पसन्द था और आलू की कोई भी सब्ज़ी उसके लिए बहुत स्वादिष्ट होती थी।
एक दिन साजिद के मन में कुछ विचार आया और वो चल पड़ा,वो रोज तड़के ही कहीं निकल जाता था और शाम को ही घर आता था।
साजिद के घर में सभी को बहुत आश्चर्य हो रहा था कि आखिर वो रोज कहा चला जाता है?
लगभग १५ दिन बाद साजिद ने अपने अब्बा से कहा कि वो उन्हें कहीं ले जाना चाहता है अब्बा मान गए और हैरान परेशान साजिद के साथ चल पड़े ।
कुछ दूर जाकर अब्बा ने देखा एक छोटा सा ढाबा है जिसके सामने कुछ एक कुर्सियां और मेज रखीं है,वो कुछ पूछते इससे पहले ही साजिद ने कहा "अब्बा मुझे मेरी मंजिल मिल गई है मैने मेरे पास कुछ जो पैसे जमा थे उनसे अपने लिए एक ढाबा खोल लिया है यहाँ लोगों को शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह का खाना परोसा जायेगा,खासतौर से मेरी अपनी पसन्दीदा सब्जी आलू की सब्जी को भी परोसा जायेगा" अब्बा की आंखों में खुशी के आंसू भर आए और उन्होंने साजिद को गले लगा लिया।
कुछ दिनों के बाद उन्होंने साजिद की रूपये पैसो से और मदद कर दी और अब साजिद ने अपना एक रेस्तरां खोल लिया सच में अब साजिद को भी अपनी एक दुनियाँ मिल गई थी।
© Deepa