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धर्म.. या विषमता..
एक साल पहले तक मैं कुछ लिखती नहीं थी.. बस सामान्य जीवन जी रही थी, और बहुत खुश थी।

फिर जैसे जैसे लिखना शुरू किया.. देखा कि धर्म के नाम पर दिमाग़ में कितना कचरा भरा हुआ है लोगों में .. स्वयं ईश्वर का धरती पर अवतरण हो तो.. तो वह भी दुखी हो जाए कि मानवता के धर्म जो ईश्वर ने दिया.. उसके अलावा सभी धर्मों का पालन हो रहा है...

मैंने सोच लिया इन सबमें दिमाग़ नहीं खराब करना.. मेरे पोस्ट धर्म और राजनीति से कोसों दूर होंगे.. पर धर्मांधता इतनी फैली है कि.. हर जगह लोग अपने मतलब का अर्थ निकाल ही लेते हैं.. खैर उन्हें समझाने से बेहतर "मौन" सार्थक है..

कुछ दिन किसी एप्प पर पोस्ट किया था..
"कब्र से गहरा होता है स्त्री का सब्र"
साधारण से इस पोस्ट पर भी धर्म के किसी ठेकेदार ने ऊँगली उठायी कि "भारतीय स्त्रियों की तुलना मुस्लिम कब्र से क्यूं कि सागर की गहराई लिख देते..

हद है ऐसे पागल लोगों की.. इनके दो सींग लगे होते हैं.. जो समझने को नहीं बस मारने को उतारू रहते हैं...

हर कोई अपने बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ाना चाहता है और बंद कमरों में लिखते है.. "गुरुकुल प्रथा लागु हो"..

अरे मूर्खों गुरुकुल व्यवस्था तब लागु होगी जब उस समय के विचार और भाव भी अपनाओगे.. पहले जैसी व्यवस्था के लिए पहले जैसा होना पड़ेगा.. पर आज के विषमता भरे इस युग में मुश्किल है..

खैर यही कहूँगी कि छोटी सी है जिंदगी.. कुछ नहीं रखा नफ़रत में.. हंसो मुस्कुराओ और अपनी ज़िन्दगी जियो..





© अनकहे अल्फाज़...
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