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सेनापति लाचित बोडफुकन की बहादुर गाथा: अहोम राजवंश के संरक्षक
आसाम

असम या आसाम उत्तर पूर्वी भारत में एक राज्य है। असम अन्य उत्तर पूर्वी भारतीय राज्यों से घिरा हुआ है। असम भारत का एक सरहदी राज्य है। भारत-भूटान और भारत-बांग्लादेश सरहद कुछ हिस्सों में असम से जुड़ी है। यहाँ पर कपिली नदी और ब्रह्मपुत्र नदी भी बहती है। असम पूर्वोत्तर दिशा में भारत का प्रहरी है और पूर्वोत्तर राज्यों का प्रवेशद्वार भी है। असम की उत्तर दिशा में भूटान और अरुणाचल प्रदेश, पूर्व दिशा में मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश और दक्षिणी दिशा में मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा राज्य हैं। विद्वानों का मत है कि असम शब्द संस्कृत के असोमा शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है अनुपम या अद्वितीय। किन्तु अधिकतर विद्वानों का मानना है कि यह शब्द मूल रूप से अहोम से बना है। ब्रिटिश शासन में जब इस राज्य का विलय किया गया, उससे पहले लगभग छह सौ वर्ष तक इस राज्य पर अहोम राजाओं का शासन रहा था। आस्ट्रिक, मंगोलियन, द्रविड़ और आर्य जैसी विभिन्न जातियां प्राचीन समय से इस प्रदेश की पहाड़ियों और घाटियों में अलग अलग समय पर आकर रहीं और बस गयीं जिसका यहाँ की मिश्रित संस्कृति में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।

कामरूप

प्राचीन समय में यह राज्य प्राग्ज्योतिष अर्थात् पूर्वी ज्योतिष का स्थान कहलाता था। कालान्तर में इसका नाम कामरूप पड़ गया। कामरूप राज्य का सबसे पुराना उदाहरण इलाहाबाद में समुद्रगुप्त के शिलालेख से मिलता है। इस शिलालेख में कामरूप का विवरण ऐसे सीमावर्ती देश के रूप में मिलता है, जो गुप्त साम्राज्य के अधीन था और गुप्त साम्राज्य के साथ इस राज्य के मैत्रीपूर्ण संबंध थे। चीन के विद्वान् यात्री ह्वेनसांग लगभग 743 ईस्वी में राजा कुमारभास्कर वर्मन के निमंत्रण पर कामरूप में आया था। ह्वेनसांग ने कामरूप का उल्लेख कामोलुपा के रूप में किया है। 11वीं शताब्दी के अरब इतिहासकार अलबरूनी की पुस्तक में भी कामरूप का विवरण प्राप्त होता है। इस प्रकार प्राचीन काल से लेकर 12वीं शताब्दी ईस्वी तक समस्त आर्यावर्त में पूर्वी सीमांत देश को प्राग्ज्योतिष और कामरूप के नाम से जाना जाता था और यहाँ के नरेश स्वयं को प्राग्ज्योतिष नरेश कहलाया करते थे। सन 1228 में पूर्वी पहाडियों पर अहोम लोगों के आने से इतिहास में मोड़ आया।

अहोम

अहोम उत्तरी बर्मा में रहने वाली शान जाति के लोग थे। सुकफ़ के नेतृत्व में उन लोगों ने आसाम के पूर्वोत्तर क्षेत्र पर 1228 ई. में आक्रमण किया और इस पर अधिकार कर लिया। यह वही समय था जब आसाम पर मुसलमानी आक्रमण पश्चिमोत्तर दिशा से हो रहे थे। धीरे-धीरे अहोम लोगों ने आसाम के लखीमपुर, शिवसागर, दारांग, नवगाँव और कामरूप ज़िलों में अपना राज्य स्थापित कर लिया। अहोम लोगों का पहले अपना अलग जातीय धर्म था, लेकिन बाद में उन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया। वे अपने साथ अपनी भाषा और लिपि भी लाये थे, लेकिन बाद में धीरे-धीरे उन्होंने असमिया लिपि स्वीकार कर ली, जो संस्कृत- बांग्ला लिपि से मिलती जुलती है।
अहोम लोग अब आसाम के अन्य निवासियों में घुल मिल गये हैं और उनकी संख्या बहुत कम रह गई है। अहोम लोगों का 17वाँ राजा प्रतापसिंह (1603-41) और 29वाँ राजा गदाधर सिंह (1681-83 ई.) बड़ा प्रतापी था। प्रताप सिंह से पहले के अहोम राजा अपना नामकरण अहोम भाषा में करते थे, लेकिन प्रताप सिंह ने संस्कृत नाम अपनाया और उसके बाद के राजा लोग दो नाम रखने लगे एक अहोम और दूसरा संस्कृत भाषा में। अहोम लोगों की यह विशेषता थी कि उन्होंने भारत के पूर्वोत्तर भाग में पठान या मुग़ल आक्रमणकारियों को घुसने नहीं दिया। हालाँकि मुग़लों ने पूरे भारत पर अपना अधिकार जमा लिया था।

अलाबोई का युद्ध

अलाबोई युद्ध (सन1669) में क्या कुछ नहीं हुआ ! इसमें दिल खोलकर झूठ और चालाकी में डूबे हुए तीरों का इस्तेमाल हुआ, मानसिक दाव-पैंच खेले गए तथा कुछ सूत्रों के अनुसार दुश्मन की ताक़त का अंदाज़ा लगाने के लिए दुश्मन के ख़ेमे में एक महिला योद्धा को भेजा गया। अहोम शासकों ने मौजूदा असम के हिस्सों पर 13वीं सदी के आरंभ से लेकर 19वीं सदी तक 600 साल राज किया था। अहोम साम्राज्य ब्रह्मापुत्र नदी तट पर पश्चिम में मानस नदी से लेकर पूर्व में सादिया पहाड़ों तक 600 मील तक फैला हुआ था। साम्राज्य की औसतन चौड़ाई 50-60 मील थी।

सन 1615 से लेकर सन 1682 तक अहोम शासकों और मुग़लों के बीच कई बार संघर्ष हुए थे। मुग़ल अपना साम्राज्य फैलाना चाहते थे औऱ इसी वजह से दोनों शक्तिशाली सेनाओं में युद्ध होते रहते थे। इन दोनों के बीच पहला युद्ध सन 1662 में शुरू हुआ था जो सन 1663 में समाप्त हुआ था। मुगलों के अधीन वाले कामरुप को दोबारा हासिल करने के लिए बंगाल के सूबेदार मीर जुमला ने अहोम शासकों से युद्ध किया था। इस युद्ध में मुग़लों की आंशिक जीत हुई थी। मुग़ल सेना ने कामरुप तक असम पर आंशिक रुप से कब्ज़ा कर लिया था और गुवाहाटी को अहोम के क़ब्ज़े से छुड़ाकर जीते गए क्षेत्रों की राजधानी बना दिया गया था। मुग़लों ने अहोम की राजधानी गढ़गांव पर भी अस्थाई रुप से कब्ज़ा कर लिया था।

राजा स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह के नेतृत्व में अहोम ने 1667 से मुग़लो से अपना क्षेत्र फिर हासिल करनी की मुहिम चलाई और वे काफ़ी क्षेत्र हासिल करने में सफल भी रहे। इनमें वे क्षेत्र भी शामिल थे जिन्हें मीर जुमला ने उनसे जीते थे। इसके बाद मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने जयपुर के राजा राम सिंह-प्रथम को हारे हुए क्षेत्रों को फिर जीतने के लिए सन 1669 में असम भेजा। इसी के बाद सरायघाट का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। असमी सेना का नेतृत्व जनरल लाचित बरफुकन कर रहे थे। मुग़लों की शक्तिशाली सेना का युद्ध के मैदान में सीधे सामना करने की बजाय लाचित ने छापामार जंग की, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली। सन 1669 के आरंभ में अहोम कई महीनों तक मुग़ल सैनिकों के लिए सिरदर्द बने रहे, जिन्होंने वहां डेरा डाल रखा था। मॉनसून की वजह से मुग़लों के लिए तत्काल जीत और गुवाहाटी पर कब्ज़ा करना भी मुश्किल हो गया था। लगातार छापामार हमलों की वजह से मुग़ल सेना का मनोबल गिरने लगा था और दूसरी तरफ़ राम सिंह ने असमियों को युद्ध में उलझाए रखने की ठान रखी थी।

अहोम राजा स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह के सब्र का बांध टूट रहा था ,लेकिन लाचित बरफुकन को पता था, कि राजपूत सेना से खुले मैदान में टकराना अहोम सेना के लिए घातक हो सकता है। दूसरी तरफ़ अहोम सैनिक भी बेताब हो रहे थे और अहोम कमांडर पेलन फूकन ने राजा को एक संदेश भेजकर कहा, कि लाचित बरफुकन जानबूझकर हमला करने में देरी कर रहे हैं, हालांकि मौसम अहोम सेना के अनुकूल है। स्थितियां और बिगड़ने लगीं और दोनों पक्षों के बीच मनोवैज्ञानिक युद्ध के तहत राम सिंह ने चिट्ठी बांधकर एक तीर अहोम कमांडर के ख़ेमे की तरफ़ चलाया। इस चिट्ठी में लिखा था- कल तुमने हमसे एक लाख रुपए का इनाम लिया था और एक लिखित समझौता में कहा था, कि हमसे युद्ध नहीं करोगे। लेकिन लगता है, कि तुमने युद्ध करने का इरादा छोड़ा नहीं है। क्या मैं जान सकता हूं क्यों? लाचित बरफुकन के नाम लिखी चिट्ठी फ़ौरन अहोम राजा को भेजी गई। मुग़ल, अहोम सेना में मतभेद पैदा करना चाहते थे और इस चिट्ठी ने ये काम लगभग कर भी दिया। चिट्ठी पढ़कर अहोम राजा आगबबूला हो गया और उसने लाचित बरफुकन को पद से क़रीब क़रीब बर्ख़ास्त ही कर दिया।

इस बीच राम सिंह ने अपना मानसिक युद्ध जारी रखा और एक संदेशवाहक के हाथों एक और चिट्ठी भिजवाई जिसमें अहोम के राजा को दोनों सेनाओं की मौजूदगी में दो-दो हाथ करने की चुनौती दी गई थी। शर्त ये थी, कि अगर राम सिंह हार गया तो वह आगे लड़े बिना वापस चला जाएगा। लेकिन चक्रध्वज सिंह ने ये कहकर चुनौती स्वीकार नहीं की, कि वह ऐसे व्यक्ति से नहीं लड़ सकता जो छत्रपति ना हो।

चार अगस्त सन 1669 को राजा चक्रध्वज सिंह ने लाचित बरफुकन और उसके कमांडरों को गुलाम बनाई गई लड़कियों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े और कुल्हाड़ियां भेजकर आख़री मौक़ा दिया। उनसे कहा गया. कि अगर वह अगले ही दिन मुग़लों पर हमला कर दें, वर्ना उन्हें राजा द्वारा भेजे गए गुलाम लड़कियों के कपड़े पहनने होंगे और कुल्हाड़ियों से उनके दिल चीर दिए जाएंगे। लाचित हक्का बक्का रह गया क्योंकि उसे पता था, कि उनसे कहीं ताक़तवर राजपूत घुड़सवार सेना पर हमला करना आत्महत्या करने के समान होगा तथा इससे बेहतर तो ये होगा कि मुग़लों से समुद्री लड़ाई लड़ी जाए। लेकिन वह राजा की आज्ञा की अव्हेलना नहीं कर सका।

मुग़लों ने अपनी सेना अलाबोई पर्वत के पास तैनात कर रखी थी। अगले दिन पांच अगस्त सन 1669 को एक पत्र के रुप में बड़ी लड़ाई का अवसर अपने आप में पैदा हो गया। ये पत्र राम सिंह ने लिखा था, जिसमें उसने अहोम को खुले में युद्ध करने की चुनौती दी थी। लाचित ने चुनौती स्वीकार कर ली और चार कमांडरों के नेतृत्व में 40 हज़ार सैनिक तैयार कर लिए। लेकिन उसने राम सिंह को भ्रम में रखा था, कि उनकी सेना में चालीस हज़ार सैनिकों नहीं बल्कि सिर्फ़ बीस हज़ार सैनिक हैं। राम सिंह इस झासे में आ गया और उसने मीर नवाब की कमान में सिर्फ़ दस हज़ार सैनिक और पुरुष यौद्धा के भेस में मदनावती नाम की एक महिला यौद्धा को भेजा और कहा अगर वह हार जाती है, तो हमारे लिए शर्मिंदा होने की कोई बात नहीं होगी और अगर जीत दुश्मनों की होती है, तो उनके लिए ये गर्व और सम्मान की बात नहीं होगी।

अहोम सेना ने एक दूसरा तरीक़ा अपनाया जो सौ साल पहले कूच-अहोम युद्ध में कारगर साबित हुआ था। उन्होंने सेना की अग्रिम पंक्ति में ब्राह्मणों के भेस में तीरंदाज़ और बंदूकधारियों को खड़ा कर दिया। उन्हें उम्मीद थी, कि राजपूत सैनिक ब्राह्मणों पर हमला नहीं करेंगे। ये सब देखकर राम सिंह को खुलकर हंसी आ गई ।अहोम सेना रक्षात्मक हो गई, जबकि मुग़ल पैदल सेना पूरी ताक़त से उन पर टूट पड़ी। मदनावती अहोम के लिए असंभव-सी लगने वाली एक बड़ी चुनौती साबित हुई। हवा की रफ़्तार से घोड़ा दौड़ाते हुए उसने अहोम सेना की चार पंक्तियों को छिन्न भिन्न कर दिया और यहां तक कि,अहोम के तीरंदाज़ और बंदूकधारी भी उसकी रफ़्तार के सामने नाकाम हो गए। आख़िरकार मदनावती की मारकाट का अंत तब हुआ, जब एक गोली ने उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी।

अहोम ने एक और गुप्त रणनीति बना रखी थी। काफ़ी अच्छी संख्या में उसके सैनिक रक्षात्मक सेना के पीछे बड़ा गड्ढा करके छुपे हुए थे। इस रणनीति से मुग़ल पैदल सेना अवाक रह गई और बुरी तरह हार गई। मुग़लों ने पास की ब्रह्मापुत्र नदी के ज़रिए दूसरा मार्ग अपनाने की कोशिश की, लेकिन अहोम उनके लिए तैयार बैठे थे। इस बीच मुग़ल कमांडर मीर नवाब को पकड़कर लाचित के सामने हाज़िर किया गया तथा उसे अहोम के क़िले में क़ैद कर लिया गया। राम सिंह, दूर से ये मारकाट देख रहा था और वह अहोम की धोखाधड़ी की वजह से उसे ग़ुस्सा आ गया था। उसने मुग़ल सैनिकों के साथ पूरी राजपूत घुड़सेना भेजी। अब तक मुग़ल सैनिक आदेश का इंतज़ार कर रहे थे। युद्ध के इस दौर में सैनिकों की संख्या के मामले में अहोम पिछड़ गए और हार गए। इस युद्ध में दस हज़ार अहोम सैनिक या तो युद्ध के मैदान में मारे गए या फिर वहां से भागते समय मारे गए । ये मुग़लों की निर्णायक जीत थी।
राम सिंह ने अहोम के ख़ेमे में एक तीर छोड़कर उनके ज़ख़्मों पर और नमक छिड़क दिया था। तीर में लगे पत्र में राम सिंह ने लाचित को चैतावनी दी थी, कि वह आइंदा इस तरह की बेवक़ूफ़ी न करे।

हालांकि जीत मुग़लों की हुई, लेकिन अलाबोई युद्ध सुनियोजित विजय से कहीं अधिक नहीं था और ये जीत मुग़लों के लिए केवल मनोबल बढ़ाने वाली थी, क्योंकि अहोम के ख़िलाफ़ उनकी मुहिम पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन दूसरी तरफ़ इस युद्ध ने गुवाहाटी से मुग़लों को खदेड़ने के अहोम सेना के संकल्प को और पुख़्ता कर दिया था।

लाचित बोड़फुकन

लाचित बोड़फुकन आसाम के इतिहास में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण नाम। बोड़फुकन का अर्थ है सेनापति। अहोम साम्राज्य का महान सेनापति जिससे औरंगजेब भी खौफ में रहता था। इन्हें अपनी वीरता और कुशल नेतृत्व क्षमता के लिए याद किया जाता है। लाचित बोड़फुकन, मोमाई तामुली बोड़बरुआ के पुत्र थे, जो कि प्रताप सिंह के शासन-काल में पहले बोड़बरुआ थे। बोड़बरुआ अर्थात राज्यपाल। लाचित बोड़फुकन ने मानविकी, शास्त्र और सैन्य कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्हें अहोम स्वर्गदेव के ध्वज वाहक का पद सौंपा गया था, जो कि किसी महत्वाकांक्षी कूटनीतिज्ञ या राजनेता के लिए पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता था। बोड़फुकन के रूप में अपनी नियुक्ति से पूर्व लाचित अहोम राजा चक्रध्वज सिंह की शाही घुड़साल के अधीक्षक, रणनैतिक रूप से महत्वपूर्ण सिमुलगढ़ किले के प्रमुख और शाही घुड़सवार रक्षक दल के अधीक्षक के पदों पर आसीन रहे थे।

राजा चक्रध्वज ने गुवाहाटी के शासक मुग़लों के विरुद्ध अभियान में सेना का नेतृत्व करने के लिए लाचित बोड़फुकन का चयन किया। राजा ने उपहारस्वरूप लाचित को सोने की मूठ वाली एक तलवार और विशिष्टता के प्रतीक पारंपरिक वस्त्र प्रदान किए थे। लाचित ने सेना एकत्रित की और 1667 ई. की गर्मियों तक तैयारियां पूरी कर लीं गईं। लेकिन कुछ कारणों से लाचित बोड़फुकन को अलाबोई के युद्ध में हार का सामना करना पड़ा। अहोम साम्राज्य की सेना निराश और विखंडित हो चुकी थी। इसे नव संगठित करना और अस्त्र शस्त्रों को इकठ्ठा करना बहुत जरूरी था। इसके लिए उन्होंने नए सैनिकों को भर्ती किया, जल सेना के लिए नौकाओं का निर्माण कराया, हथियारों की आपूर्ति, टोपों का निर्माण और किलों के लिए मजबूत रक्षा प्रबंध इत्यादि दायित्व अपने ऊपर लिए। उन्होंने यह सब इतनी चतुराई और समझदारी से किया कि इन सब की मुगलों को भनक तक नहीं लगी।

लचित की युद्ध-कला एवं दूरदर्शिता का दिग्दर्शन मात्र अंतिम युद्ध में ही नहीं हुआ, अपितु उन्होंने 1667 में गुवाहाटी के ईटाकुली किले को मुगलों से स्वतंत्र कराने में भी कुशल युद्धनीति का परिचय दिया। मुगलों ने फिरोज खान को फौजदार नियुक्त किया, जो बहुत ही भोग-विलासी व्यक्ति था। उसने चक्रध्वज सिंह को सीधे-सीधे असमिया हिंदू कन्याओं को भोग-विलास के लिए अपने पास भेजने का आदेश दिया। इससे लोगों में मुगलों के खिलाफ आक्रोश बढ़ने लगा। लचित ने लोगों के इस आक्रोश का सही प्रयोग करते हुए इसी समय गुवाहाटी के किले को मुगलों से छीनने का निर्णय लिया। लचित के पास एक शक्तिशाली और निपुण जल सेना के साथ समर्पित और दक्ष जासूसों का संजाल था। लचित ने योजना बनाई,जिसके अनुसार 10-12 सिपाहियों ने रात के अंधेरे का फायदा उठाते हुए चुपके से किले में प्रवेश कर लिया और मुगल सेना की तोपों में पानी डाल दिया। अगली सुबह ही लचित ने ईटाकुली किले पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।

जब औरंगजेब को इस विजय के बारे में पता चला तब वह गुस्से से तिलमिला उठा। उसने मिर्जा राजा जयसिंह के बेटे रामसिंह को 70,000 सैनिकों की बड़ी सेना के साथ अहोम से लड़ने के लिए असम भेजा। उधर लचित ने बिना एक पल व्यर्थ किए किलों की सुरक्षा मजबूत करने के लिए सभी आवश्यक तैयारियां प्रारंभ कर दीं। लचित ने अपनी मौलिक युद्ध नीति के तहत रातों रात अपनी सेना की सुरक्षा हेतु मिट्टी से मजबूत तटबंधों का निर्माण कराया। जिसका उत्तरदायित्व लचित ने अपने मामा को दिया था। बीमार होने के बावजूद जब लचित उस जगह पर पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि सारे सैनिक हताशा और निराशा से भरे हुए हैं, क्योंकि उन्होंने पहले ही ये मान लिया था कि वो सूर्योदय से पहले मिट्टी से मजबूत तटबंधों का निर्माण नहीं कर पाएंगे।
यह देखकर लचित को अपने मामा पर बहुत गुस्सा आया कि वो काम करने के लिए अपने सैनिकों का उत्साह भी नहीं बढ़ा सके। इसी गुस्से में उन्होंने अपनी तलवार निकाली और एक झटके में ही अपने मामा का सिर धड़ से अलग कर दिया। बाद में उन्होंने खुद सैनिकों में इतना जोश भर दिया कि उन्होंने सूर्योदय से पहले ही मिट्टी से मजबूत तटबंधों का निर्माण कर दी। एक सेनापति के तौर पर उन्होंने अपने सैनिकों में इसी उत्साह और जोश को बनाए रखा, जिसकी बदौलत उन्हें युद्ध में जीत हासिल हुई।

1671 में सरायघाट, ब्रह्मपुत्र नदी में अहोम सेना और मुगलों के बीच ऐतिहासिक लड़ाई हुई। रामसिंह को अपने गुप्तचरों से पता चला कि अन्दुराबली के किनारे पर रक्षा इंतजामों को भेदा जा सकता है और गुवाहाटी को फिर से हथियाया जा सकता है। उसने इस अवसर का फायदा उठाने के उद्देश्य से मुगल नौसेना खड़ी कर दी। उसके पास 40 जहाज थे, जो 16 तोपों और छोटी नौकाओं को ले जाने में समर्थ थे। यह युद्ध उस यात्रा का चरमोत्कर्ष था, जो यात्रा आठ वर्ष पहले मीर जुमला के आक्रमण से आरंभ हुई थी। भारतवर्ष के इतिहास में कदाचित् यह पहला महत्वपूर्ण युद्ध था, जो पूर्णतया नदी में लड़ा गया तथा जिसमें लचित ने पानी में लड़ाई की सर्वथा नई तकनीक आजमाते हुए मुगलों को पराजित किया। ब्रह्मपुत्र नदी का सरायघाट इस ऐतिहासिक युद्ध का साक्षी बना। इस युद्ध में ब्रह्मपुत्र नदी में एक प्रकार का त्रिभुज बन गया था, जिसमें एक ओर कामख्या मंदिर, दूसरी ओर अश्वक्लान्ता का विष्णु मंदिर और तीसरी ओर ईटाकुली किले की दीवारें थीं। दुर्भाग्यवश लचित इस समय इतने अस्वस्थ हो गए कि उनका चलना-फिरना भी अत्यंत कठिन हो गया था, परंतु उन्होंने बीमार होते हुए भी भीषण युद्ध किया और अपनी असाधारण नेतृत्व क्षमता और अदम्य साहस से सरायघाट की प्रसिद्ध लड़ाई में लगभग 4,000 मुगल सैनिकों को मार गिराया। इस युद्ध में अहोम सेना ने अनेक आधुनिक युक्तियों का उपयोग किया। युद्ध के दौरान ही बनाया गया नौका-पुल छोटे किले की तरह काम आया। अहोम की बच्छारिना नाव, मुगलों की नाव से छोटी थी, अत्यंत तीव्र और घातक सिद्ध हुई। इन सभी आधुनिक युक्तियों ने लचित की अहोम सेना को मुगल सेना से अधिक सबल और प्रभावी बना दिया। दो दिशाओं से हुए प्रहार से मुगल सेना में हड़कंप मच गया और सायंकाल तक उसके तीन अमीर और 4,000 सैनिक मारे गए। इसके बाद मुगल सेना मानस नदी के पार भाग खड़ी हुई। दुर्भाग्यवश इस युद्ध में घायल लचित ने कुछ दिन बाद प्राण त्याग दिए। उनका मृत शरीर जोरहाट से 16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वारा सन 1672 में निर्मित लचित स्मारक में विश्राम कर रहा है। लाचित बोड़फुकन का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, लेकिन एक पुराना इतिवृत्त उनका वर्णन इस प्रकार करता है, उनका मुख चौड़ा है और पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह दिखाई देता है। कोई भी उनके चेहरे की ओर आँख उठाकर नहीं देख सकता।

सरायघाट की इस अभूतपूर्व विजय ने असम के आर्थिक विकास और सांस्कृतिक समृद्धि की आधारशिला रखी। आगे चलकर असम में अनेक भव्य मंदिरों आदि का निर्माण हुआ। यदि सरायघाट के युद्ध में मुगलों की विजय होती, तो वह असमवासी हिंदुओं के लिए सांस्कृतिक विनाश और पराधीनता लेकर आती। मरणोपरांत भी लचित असम के लोगों और अहोम सेना के ह्रदय में अग्नि की ज्वाला बनकर धधकते रहे और उनके प्राणों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। लचित द्वारा संगठित सेना ने 1682 में मुगलों से एक और निर्णायक युद्ध लड़ा। इसमें उसने अपने ईटाकुली किले से मुगलों को खदेड़ दिया। इसके बाद मुगल फिर कभी असम की ओर नहीं आए।
© Pradeep Parmar