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शुनःशेप आख्यान
शुनःशेप आख्यान और उसका निहितार्थ


विश्व के प्रत्येक जीवन्त साहित्य में आख्यान जन्म लेते रहते हैं, लोकमानस से जन्म लेना वाला कोई भी साहित्य इसका अपवाद नहीं हो सकता। फिर वैदिक साहित्य इससे कैसे बच सकता था? वेद और उसके प्रभाव से अस्तित्व में आने वाले आनुषङ्गिक साहित्य में उक्त प्रवृत्ति अपने चरम पर विद्यमान है। ऋग्वेद के1.24-1.30तक के मन्त्रों से प्राप्त संकेतों के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण में शुनःशेप आख्यान का आविर्भाव हुआ है। शुनःशेप के पिता का नाम सौवयस अजिगर्त है, इसके तीन पुत्र हैं-शुनःपुच्छ, शुनःशेप, शुनोलाङ्गूल। इन तीनों का अर्थ कुत्ते की पूँछ होता है। जिस प्रकार पञ्चतन्त्र में प्रतीकों का आश्रय लेकर वक्ता ने अपने कथ्य को श्रोता तक पहुँचाया है, उसका वास्तविक जगत् से भौतिक सम्बन्ध न होते हुए भी प्रवृत्तिगत साम्य है। वहाँ शृगाल, मूषक आदि पशुविशेष न होकर हमारे आपके सबके अन्दर विद्यमान प्रवृत्ति को रूपायित कर रहे हैं, उसी प्रकार शुनःपुच्छ, शुनःशेप, शुनोलाङ्गूल। ये नामकरण मनुष्य की प्रवृत्ति को लक्ष्य बनाकर वैदिक ऋषि के द्वारा छोड़े गये महास्त्र हैं। राजपुत्र रोहित ने अपने को बलि से बचाने के लिये भूख से तड़पते हुए अजीगर्त से एक पुत्र माँगा, परन्तु पिता ने ज्येष्ठ और माता ने कनिष्ठ को देने से मना कर दिया गया। शेष बचता है-मध्यम शुनःशेप, उसे माता-पिता100गायों के बदले बलि के लिये सौंप देते हैं। सम्पूर्ण आख्यान इस शुनःशेप के क्रन्दन और उससे उपजे पुरुषार्थ की कहानी है। इस आख्यान का सामाजिक सन्दर्भ तो है ही, राजनैतिक भी है और उससे बढ़कर यह आध्यात्मिक यात्रा के उच्चतम सोपान की ओर ले जाता है। यह इतना यथार्थवादी आख्यान है, इसकी तुलना में आधुनिक साहित्य में से कम ही उदाहरण मिल पायेंगे। जो उदाहरण मिलेंगे भी, वे किसी (सामाजिक, राजनैतिक या आध्यात्मिक में से) एक पक्ष को रूपायित कर रहे होंगे। एक साथ त्रिवेणी को प्रवाहित करना यह वैदिक ऋषि का ही चमत्कार हो सकता है। किसी व्यक्ति विशेष के वास्तविक जीवन से सम्बन्ध न होने पर भी यह हममें से बहुतों के जीवन की गाथा है, अतः प्रस्तुत आलेख के माध्यम से शुनःशेप आख्यान के निहितार्थ को समझने के प्रयास किया जा रहा है।

शुनःशेप आख्यान

ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार इक्ष्वाकुवंश के वेधस राजा के पुत्र हरिश्चन्द्र निःसंतान थे, उन्होंने नारद ऋषि के कहने से वरुण से पुत्र माँगा कि मुझे पुत्र दो, उससे मैं तुम्हारा यजन करूँगा। राजा को रोहित नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई, लेकिन पुत्र मिलने पर भी राजा ने यजन नहीं किया, पुनःपुनः यजन की नवीन तिथि नियत करता और समय आने पर यजन नहीं करता था। वरुण देव को दिये गये वचन का निर्वाह न करने के कारण हरिश्चन्द्र को महोदर रोग होगया। अब तक पुत्र रोहित बढ़ा हो चुका था, राजा ने एक बार यजन करने का प्रयास किया, परन्तु वह अरण्य में चला गया। पिता के रोग की सूचना उसे वन में मिल जाती है, परन्तु जब भी वह आने का प्रयास करता है, इन्द्र ब्राह्मण के वेष में आकर उसे पुनः वन में वापिस भेज देते हैं।

अजीगर्त से मिलन

छठे वर्ष अरण्य में उसका मिलन विना भोजन के रहने वाले अजीगर्त ऋषि से हुआ, उसके शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनोलांगूल नाम के ये तीन पुत्र थे। उसने ऋषि से कहा कि मैं आपको सौ गायें दूँगा, मुझे वरुण का यजन करने के लिये इनमें से एक पुत्र दे दो, ज्येष्ठ पुत्र को देने के लिये पिता और कनिष्ठ को देने के लिये माता तैयार नहीं हुई, अतः मध्यम पुत्र शुनःशेप को दे दिया गया। रोहित शुनःशेप को लेकर पिता के पास आया और कहा कि इसका यजन करके मैं अपने को बलि से बचाऊँगा।

यज्ञ का आयोजन

इस यज्ञ में विश्वामित्र होता, जमदग्नि अध्वर्यु, वसिष्ठ ब्रह्मा, और अयास्य उद्गाता के रूप में विराजमान हुए, लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति न मिला जो शुनःशेप को बाँधता। शुनःशेप के पिता अजीगर्त ने कहा कि मुझे सौ गाय और दो मैं इसे बाँध दूँगा, उसने सौ गाय लेकर शुनःशेप को खूँटे से बाँध दिया। अब बलि के लिये उसका वध करने वाला कोई न मिला, तब फिर अजीगर्त ने कहा कि सौ गाय मुझे और दो मैं इसका वध कर दूँगा। उसे सौ गाय और दी गयीं, वह वध करने के लिये तलवार तेज करने लगा, तब उसके मन में आया कि मुझे देवताओं के पास जाना चाहिये, यह सोचकर वह देवताओं में सबसे पहले प्रजापति के पास गया, प्रजापति ने अग्नि के पास, अग्नि ने सविता के पास, सविता ने विश्वदेवों के पास, विश्वदेवों ने इन्द्र के पास भेजा, इन्द्र ने स्तुति से प्रसन्न होकर शुनःशेप को स्वर्ण का रथ दिया और उससे कहा कि अश्विनी देवों की स्तुति कर, अश्विनों ने उसे उषा के पास भेज दिया। इस प्रकार उक्त सब देवों की क्रमशः स्तुति करते हुए शुनःशेप के बन्धन खुलते चले गये और हरिश्चन्द्र का महोदर का रोग भी जाता रहा।[1]

निष्कर्ष

यदि हम विश्व साहित्य पर एक विहंगम दृष्टिपात करें तो विदित होता है कि जितना भी लोकमानस से जन्म लेने वाला साहित्य होता है, उसमें आख्यान स्वतः उद्भूत होते रहते हैं। जैसे बोली और पानी थोड़ी-थोड़ी दूर में अपना स्वभाव बदल लेते हैं, वैसे ही लोकमानस से जन्म लेने वाले आख्यान अपना रूप बदलते रहते हैं। लोक की रुचि और भिन्न रूप में प्रस्तुत करने की शैली न चाहते हुए भी साहित्य को यथावत् नहीं रहने देती। यही कारण है कि वेद से प्राप्त संकेतों को ग्रहण कर ब्राह्मणसाहित्य में अस्तित्व में आने वाले शुनःशेप आख्यान के पदचिह्न आधुनिक युग तक दिखायी पड़ते हैं। उक्त आख्यान के हरिश्चन्द्र और रोहित पात्र बलि की पुरानी परम्परा को अपनी स्मृति में संजोये हुए आधुनिक युग में कतिपय देवी-देवताओं के साथ खड़े दिखायी देते हैं।

राजसत्ता का चरित्र

उक्त आख्यान को तीन भागों में बाँट सकते हैं-प्रथम-राजपरिवार, द्वितीय अजीगर्त ऋषि और उसका परिवार और तृतीय देवसमूह। इन तीनों भागों को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी शुनःशेप है। राजपरिवार से सम्बन्धित उपर्युक्त आख्यान के कथानक का विश्लेषण करने पर राजपरिवार और उसका चरित्र स्पष्ट हो जाता है। हरिश्चन्द्र, जिसे परवर्ती साहित्य में सत्य का प्रतीक माना गया है, स्वार्थ की पूर्ति हो जाने पर मोहवश अपने वचन का पालन नहीं करता और बार-बार उसकी पूर्ति की नवीन तिथि घोषित करता है, परन्तु उसमें से स्थिर एक पर भी नहीं रहता। राजपरिवार का द्वितीय सदस्य रोहित है। पिता द्वारा बतलाने पर कि वरुण को दिये गये वचन के अनुसार तुम्हारी बलि दी जानी है, वह रोहित पिता को एकाकी छोड़कर वन में चला जाता है। आने का बार-बार प्रयास करता है, परन्तु इन्द्र द्वारा चरैवेति का सन्देश देने पर पुनः वन में चला जाता है। और तभी लौटता है जब उसे बलि देने के लिये अपने स्थान पर कोई अन्य मिल जाता है।

उपर्युक्त राजपरिवार के वृत्तान्त से उस युग की राजसत्ता का दोगलापन व्यञ्जित होता है। कदाचिद् राजनीति का चरित्र युग पर उतना निर्भर नहीं रहता, जितना कि उसकी मूल चेतना पर। राजनीति की धारा कभी भी शुद्ध और निर्मल नहीं रही है। उसके लिये अपने स्वार्थ से ऊपर उठना कभी सम्भव नहीं रहा है। पिता पुत्र अपने चरित्र के द्वारा एक ही सत्य को उद्घोषित कर रहे हैं कि राजनीति का स्वभाव वञ्चना करना था, वञ्चना करना है और भविष्य में भी विश्वास की उससे कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। जितने भी विधान हैं, वे सब निरीह प्रजा के लिये हैं।

वाल्मीकि रामायण में भी राजसत्ता का यही चेहरा

राजसत्ता के शीर्ष पर विराजमान लोग साधारण जनमानस की बात जाने दीजिए, वे अपने आराध्य (वरुण) तक को भी चकमा दे सकते हैं। नहीं तो दशरथ को क्या आवश्यकता थी कि दो पुत्रों के मामा के यहाँ चले जाने पर राज्याभिषेक घोषित करते और राम चुपचाप राज्यसिंहासन पर बैठने को तत्पर हो जाते हैं। यह दुरभिसन्धि नहीं तो और क्या है। यदि कदाचिद् विश्वास में लेकर दशरथ ने निर्णय किया होता तो राम को वनवास और दशरथ को राम के वियोग में प्राण न त्यागने पड़ते। परन्तु राजनीति तो कुटिला है, यदि कुटिला ही होती, तब भी कोई बात नहीं थी वह तो इतनी अधिक दूषित रही है कि उसमें सदाचार सम्पन्न लोगों के लिये साँस लेना कठिन रहा है। यह हम राम से पहले के युग में भी देख सकते हैं।

शुनःशेप नामकरण का आधार

कथानक का मुख्य केन्द्र अजीगर्त ऋषि और उसका परिवार रहा है। प्रथम कोई अपनी सन्तानों के नाम शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनोलाङ्गूल अर्थात् कुत्ते की पूँछ कैसे रह सकता है। इस विषय में यह ध्यान देने योग्य है कि उक्त तीनों नाम पुनः इतिहास में देखने को नहीं मिलते हैं। मिलते भी कैसे? इस प्रकार के गर्हित नाम ऋषि को जाने भी दें, कोई सामान्य व्यक्ति भी रखने को तैयार नहीं हो सकता। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि ये नाम न होकर नाम के माध्यम से किसी प्रवृत्ति विशेष को इङ्गित किया जा रहा है। अजीगर्त सुयवस का पुत्र है। सुवयस का अर्थ होता है कि पर्याप्त मात्रा में पानी और चारा की उपलब्धता का होना सुयवस है।[2] पिता के पास आवश्यकता से अधिक भोजन सामग्री है, परन्तु उसका पुत्र अजीगर्त है, कोषकारों के अनुसार जिसके पास निगलने को कुछ न हो, वह अजीगर्त है।[3] इस प्रकार पिता सम्पन्न और पुत्र निर्धन है। एक के पास सब कुछ है, जबकि दूसरे के पास जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने की भी सामर्थ्य नहीं है। यह विडम्बना ईश्वर को पिता और मनुष्य को सन्तान के रूप में देखने पर स्पष्ट हो जाती है।

शुनःशेप को देने का कारण

भूख से व्याकुल अजीगर्त के तीन पुत्र हैं, उसमें से ज्येष्ठ को वह स्वयं और कनिष्ठ को उसको पत्नी नहीं देना चाहती, इसलिये मध्यम पुत्र शुनःशेप को राजपुत्र रोहित को दे दिया जाता है। प्रथम हम यहाँ अजीगर्त के तीनों पुत्रों के नाम के रहस्य को समझने का प्रयास करते हैं। शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनोलाङ्गूल के नाम ही विचित्र नहीं है, ये तीनों नाम भी लगभग एकार्थक हैं। समाज, साहित्य और इतिहास में ऐसी भी प्रवृत्ति देखने को नहीं मिलती कि किसी व्यक्ति के जितने पुत्र हों, उनके अर्थ भी समान हों। इसलिये नाम रखते समय इस तथ्य को ध्यान में रक्खा गया है कि नाम के अर्थ की समानता बनी रहे। सम्पूर्ण मानव जाति के चरित्र की विशिष्टता को इंगित करने का प्रश्न है, इसलिये नाम ऐसे रक्खे गये हैं कि चाहे हम जिस प्रकार उस यात्रा पर निकलें, हम चाहे जिस दर्शन का अध्ययन करें, वह आस्तिक हो या फिर नास्तिक, वेद या फिर कुरान। सभी एक स्वर से मनुष्य की एक कमजोरी को पहिचानने के लिये जोर देते रहे हैं और वह है समझकर भी न समझना, नर से नारायण का मार्ग दिखायी देने पर भी नर से नरक की ओर बढ़ते चले जाना। जिस प्रकार कुत्ते की पूँछ कितनी भी सीधी करो, वह सीधी होकर देती ही नहीं है। लोक में कहावत है कि कुत्ते की पूँछ टेड़ी की टेड़ी रहती है। उसको अनन्तकाल तक सीधा करने के लिये पकड़े रहो, छोड़ते ही वह फिर वह वक्र हो जायेगी। यह कुत्ते की पूँछ की विशेषता मनुष्य में भी है, साधना, संयम से उसे कितना भी साधो, जैसे ही वह ईश्वर से पृथक् होता है, फिर वह वहीं पहुँच जायेगा, जहाँ से उसने यात्रा प्रारम्भ की थी।

शुनःशेप मध्यस्थानी कामकेन्द्र का प्रतीक

इस विषय में दूसरा ध्यान आकर्षित करने वाला बिन्दु है कि माता-पिता शुनःशेप को ही क्यों देते हैं? ज्येष्ठ और कनिष्ठ को क्यों नहीं? इसका कारण यह है कि निहित वृत्ति के आधार पर वेद ने मनुष्य के शरीर उत्तम, मध्यम और अधम तीन भागों में बाँटा है।[4] इन तीन में भी मध्यम भाग पर विजय पाना अधिक कठिन है, क्योंकि मध्यभाग वासना की भूख का केन्द्रबिन्दु है। यदि काम पर विजय पा ली गयी तब अन्य विकारों को उत्पन्न करने का अवसर नहीं रहता है। इसलिये गीता में समस्त विकारों का मूल काम को माना गया है और उसी से शेष विकारों की उत्पत्ति होती है।[5] इसके अतिरिक्त मध्यभाग में रहने वाला काम ही है, जो सृष्टि के आदि में सबसे पहले अस्तित्व में आता है।[6] यदि मुक्ति की कामना है तो फिर सबसे पहले उसको बाँधना होगा, जिसकी उत्पत्ति सबसे पहले हुई है। इसलिये ऐतरेय का ऋषि मध्यमपुत्र शुनःशेप को बाँधने की बात कर रहा है। शुनःशेप अवस्था से मध्यम नहीं है, वह तो स्थिति से मध्यम है। केन्द्र हमेशा मध्य में होता है, जो भी महत्त्वपूर्ण है, वह केन्द्र में निवास करता है, आत्मा का निवासस्थान हृदय में माना जाता है, वह शरीर का केन्द्र है। देश का केन्द्र राजधानी होती है, वह सामान्यतया देश के कोण में नहीं, मध्य में होती है, यदि उस पर विजय प्राप्त कर ली, तब फिर वह देश विजित माना जाता है। इसी प्रकार शुनःशेप मध्य में है, यदि उस पर विजय प्राप्त कर ली, तब अन्यों को जीतना बहुत कठिन नहीं रहता है। इसलिये वेद बार-बार मध्यम पर जोर देता है[7] और ऐतरेय का ऋषि मध्यम को बाँधने की बात कर रहा है। मध्यम के महत्त्व को बतलाने के लिये ऋषि ने लोक परम्परा का आश्रय लेते हुए माता-पिता के आख्यान के द्वारा कनिष्ठ और ज्येष्ठ को देने से मना कर दिया है।

तीन यूप से बाँधने का प्रयोजन

सामान्यतया पशु को एक यूप से ही बाँधा जाता है, परन्तु शुनःशेप को वेद तीन द्रुपद से बँधा हुआ बतला रहा है।[8] स्कन्द कहते हैं कि ऐसा इसलिये है कि पशु को एक स्थान से बाँधने से काम चल जाता है, यदि निश्चल रूप से विशसन करना है तो फिर उसको तीन स्थानों से बाँधना होगा।[9] इसी प्रकार यदि मनुष्य को बाँधना है, जिससे यह दुर्वृत्तियों का शिकार न हो, तब उसे तीन यूपों से बाँधना ही होगा, उसके लिये तीन यूप हैं-मन, वचन और कर्म के स्तर पर नियन्त्रण।

मध्यमपाश

मनुष्य के शरीर को स्थूल रूप से तीन भागों में बाँट सकते हैं-प्रथमभाग-गर्दन तक सिर, द्वितीयभाग- शरीर का मध्यभाग जिसमें उदर और उपस्थ कामेन्द्रिय आती है और तृतीयभाग-पाद। शिरोभाग ज्ञानेन्द्रिय प्रधान है, ज्ञानेन्द्रियाँ जब अधर्म मार्ग पर ले जाती हैं, तब यह उत्तमपाश है। मध्यभाग में उदर और उपस्थ कामेन्द्रिय आती है। उदर अर्थ का प्रतिनिधित्व करता है और उपस्थ कामेन्द्रिय काम का। जब व्यक्ति अर्थ और काम के वशीभूत होकर अनर्थ करता है, तब उसका यह मध्यमपाश होता है। अर्थ काम का भूत इतना भयंकर होता है कि व्यक्ति उसके आगे किसी भी सम्बन्ध को महत्त्व नहीं देता है। मनु ने तो स्पष्ट कहा है कि अर्थ और काम में आसक्त के लिये धर्मज्ञान है ही नहीं।[10] नीतिकार तो यहाँ तक कहते हैं-विधाता ने संसाररूपी समुद्र में डुबाने के लिये कान्ता और कनक के रूप में दो प्रकार के भँवर बनाये हैं। जो इसमें डूबने से बच जाता है, वह मनुष्य के रूप में साक्षात् भगवान् है।[11] अधमपाश पैर हैं, ये शूद्रत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। धर्म के मार्ग को ने जानना अधमपाश कहलाता है। इसको हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि अज्ञान के कारण होने वाले त्रुटि, भूल या पाप अधमपाश हैं। यदि हमारे अज्ञान के कारण कोई कुकृत्य होता है, तो हम उसके होने वाले परिणाम से बच नहीं सकते। जैसे भूलवश छू लेने पर अग्नि या विद्युत् के दाह के परिणाम से बचा नहीं जा सकता। जो नियम प्रकृति को चला रहे हैं, उनको जानने से हम दुःखों के पार पहुँचते हैं और न जानने से उनमें फँस जाते हैं। इस प्रकार न जानना अधमपाश है और जानना उस पाश से मुक्ति है।

उपर्युक्त विस्तृत विवेचन से बलिहेतु मध्यमपुत्र को देने का कारण स्पष्ट हो जाता है। तीनों पाश में से मध्यम पाश पर विजय पाना अधिक कठिन है, इसलिये माता-पिता ने मध्यमपुत्र शुनःशेप को यज्ञ में बलिहेतु प्रदान किया है।

अजीगर्त के तीनों पुत्र पाश के प्रतिनिधि

इसके अतिरिक्त अजीगर्त के तीनों पुत्र (शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनोलाङ्गूल) भी पाश का ही प्रतिनिधित्व करते दिखायी देते हैं। इसका कारण यह है कि दुर्वृत्तियाँ का स्वरूप कुत्ते की पूँछ के समान होता है। एक बार जो इनके जाल में फँस जाता है, फिर वह सरलता से इनके पाश से नहीं छूट सकता। पाश की दृष्टि से समान होने से शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनोलाङ्गूल के नाम में ऐतरेय के ऋषि ने समानता रक्खी है। जो क्रम उत्तम, मध्यम और अधम में है, वही अजीगर्त के पुत्रों के क्रम में है, ज्येष्ठ पुत्र शुनःपुच्छ उत्तम पाश है, मध्यमपुत्र शुनःशेप मध्यमपाश है और कनिष्ठ पुत्र शुनोलाङ्गूल अधमपाश है। इनका मूल स्वरूप मनुष्य के स्वभाव में वक्रता (विकृति) लाना है, जैसा कि कुत्ते की पूँछ वक्र होती है।

पाश की त्रिविधता

इस प्रकार हम चाहे शुनःशेप के बन्धन के आधार पर पाश की त्रिविधता को स्वीकार करें या फिर अजीगर्त के पुत्रों के आधार पर। दोनों का उद्देश्य एक ही दिशा की ओर इङ्गित करना है कि ये पाश हैं, इनसे मुक्त होना। जिस प्रकार कुत्ते की पूँछ थोड़ी देर के लिये भी बन्धन से मुक्त की जाए, फिर वह अपने स्वभाव में आ जाती है, उसी प्रकार यम-नियम, सदाचार आदि व्रतों के पालन में जरा सी भी असावधानी फिर हमें वहीं पहुँचा सकती है। यह सत्य कभी विस्मृत न हो, इसलिये कुत्ते की पूँछ के उपमान के माध्यम से ऋषि ने सावधान करने का प्रयास किया है।

यजन-पक्ष

उक्त आख्यान का तृतीय पक्ष यजन पक्ष है। शुनःशेप की बलि हेतु हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ और अयास्य इन चार ऋषियों को यजन हेतु नियुक्त किया है। ऋषि का अर्थ द्रष्टा माना जाता है, अतः ये जीवन को जीने का दर्शन है।

विश्वामित्र

विश्वामित्र और जमदग्नि चार में से ये दो पुरोहित जीवन को देखने की दो दृष्टियाँ हैं। ऐतरेय-ब्राह्मण में विश्वामित्र को विश्व का मित्र और जिसके लिये सम्पूर्ण विश्व मित्र बन जाता है, प्रतिपादित किया है।[12] शतपथ-ब्राह्मण में श्रोत्र को ‘विश्वामित्र’ बताया है और कहा है कि जिसके लिये चारों ओर मित्रता की भावना होती है, वह ‘विश्वामित्र’ है।[13] उक्त उद्धरणों से भी इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है कि जो सबका भला चाहता है, तभी अन्य भी उसके मङ्गल की कामना करते हैं। अपने में अहिंसा की प्रतिष्ठा किये विना दूसरों से अहिंसक व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जिस प्रकार टकराकर ध्वनि की प्रतिध्वनि आती है, उसी प्रकार जो हम दूसरे से अपने लिये अपेक्षा करते हैं, वह हमें पहले दूसरों के लिये करना चाहिये। यह तभी सम्भव है कि जब हम स्व-पर भेद से ऊपर उठ जायें। विश्वामित्र उस दृष्टि का परिणाम है, प्रारम्भ नहीं। इसलिये ब्राह्मणों ने ‘यदस्मै सर्वतो मित्रं भवति’ या ‘विश्वं हास्मै मित्रं भवति’ कहा है। सत्य और अहिंसा की प्रतिष्ठा वाला व्यक्ति समदृष्टि से भिन्न नहीं हो सकता। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अहिंसा, समता आदि भावों की उत्पत्ति ईश्वर से मानी है।[14] इस प्रकार इनकी प्रतिष्ठा करने वाला व्यक्ति अपने में ईश्वर के गुणों का विकास करता है। इसलिये वह सबका मित्र तथा सब उसके मित्र हो जाते हैं। ईश्वर के सर्वव्यापक होने के कारण वह सर्वत्र सबमें उसी एक आत्मतत्त्व का दर्शन करता है और तादात्म्य होने के कारण कण-कण में व्याप्त ईश्वर से, ईश्वर का भेद कैसे कर सकता है। सच्चे आत्मदर्शी को भेद करने के लिये ईश्वर को एकदेशीय और व्यष्टि मानना होगा, ऐसा उसके लिये सम्भव नहीं है। व्यष्टिरूप दुःख से समष्टिरूप आनन्द सागर में पहुँचने के बाद कोई कैसे ‘विश्व+मित्र’ से ‘विश्व+अमित्र’ बन सकता है। इस प्रकार व्यष्टि से समष्टि की अनुभूति ‘विश्वामित्र’ है।

जमदग्नि

द्वितीय ऋषि जमदग्नि है। निघण्टु में ‘जमत्’ पद ज्वलत् वाचक नामपदों में पठित है।[15] आचार्य यास्क ने जमदग्नि का निर्वचन ‘प्रज्वलिताग्नि’ किया है।[16] शतपथ-ब्राह्मण जमदग्नि का प्रतिपादन करता हुआ कहता है कि चक्षु ही जमदग्नि ऋषि है, क्योंकि इसी से द्रष्टा जगत् को देखता तथा समझता है।[17] इस प्रकार शतपथ-ब्राह्मण के अभिमत में देखना और देखने के बाद समझना जमदग्नि ऋषि का कार्य है। निघण्टु और यास्क के मन्तव्य को ध्यान में रखते हुए यहाँ यह कहा जा सकता है कि दो चक्षुओं में से ‘जमदग्नि’ वह चक्षु है, जो देखने के साथ-साथ समझते हुए लोक को परखता और आवश्यकता होने पर अपने उग्र तेज को प्रकट भी करता है। सज्जन के साथ सज्जनता का और दुर्जन के साथ दुर्जनता का व्यवहार करना ‘जमदग्नि’ ऋषि का कार्य है।

जमदग्नि के लिये अवसर

जब जीवन यापन करने में विश्वामित्र दृष्टि से काम नहीं चलता, तब जमदग्नि (उग्र तेज) का आश्रय आवश्यक हो जाता है। वैदिक दर्शन पलायनवादी दर्शन नहीं है। पराजित और प्रताड़ित अनुभव करते हुए जीवन समर में बने रहना या पलायन कर जाना आत्मगौरव को कुण्ठित करता है। जहाँ दूसरे को आहत करना हिंसा है, वहाँ निर्दोष होते हुए स्वयं को आहत होने देना हिंसा ही है। हिंसा की जीवन रेखा को सङ्कुचित कर देना या उस पर पूर्ण विराम लगा देना अहिंसा है। इस स्थिति का निर्माण करने के लिये जिस उग्रतेज और मन्यु की आवश्यकता होती है, वह ‘जमदग्नि’ है, वह साक्षात् ज्वाला है।

वसिष्ठ

तृतीय ऋषि जो उक्त यज्ञ के ब्रह्मा हैं- वसिष्ठ। ऐतरेय आरण्यक के अनुसार देवताओं ने कहा है कि यह प्राण हम लोगों में निरन्तर रहने वाला है। अतः, वासकतम होने के कारण यह वसिष्ठ है।[18] शतपथ-ब्राह्मण निवास तथा श्रेष्ठ हेने के प्राण को वसिष्ठ रूप में प्रतिपादित करता है।[19] गोपथ-ब्राह्मण से भी उक्त कथन की पुष्टि हो जाती है।[20]

लोक जीवन तथा आध्यात्मिक जीवन की सफलता के लिये प्राणों का न केवल अस्तित्व आवश्यक है, अपितु पुष्टि भी। प्राण के दुर्बल होने से सुन्दर लोक भोग के योग्य नहीं रहता है और विना भोग के अपवर्ग की कल्पना भी करना सम्भव नहीं है। इस प्रकार वसिष्ठ का ऋषित्व प्राणों की प्राणवत्ता में निहित है। धर्म, अर्थ, काम-यहाँ तक कि मोक्ष की उपलब्धि विना प्राण के सम्भव नहीं है। इसलिये ब्राह्मणों ने उसे वासकतम कहा है।[21] दीर्घायु तथा सबलता को परिलक्षित करने के लिये प्राण को ‘वसिष्ठ’ ऋषि नाम से अभिहित किया गया है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जीवन की आध्यात्मिक यात्रा में प्राणरूप वसिष्ठ ब्रह्मा के रूप में कार्य करते हैं।

अयास्य

ऐतरेय ब्राह्मण चतुर्थ ऋत्विज् (उद्गाता) के रूप में अयास्य का नाम प्रस्तुत करता है। आचार्य स्कन्दस्वामी अयास्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-‘अयास्यो नामाङ्गिरसोऽभिप्रेतः। कथमवगम्यते ‘एह गमन्नृषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः’ (ऋ010.108.8) इति दर्शनात्। अथवा आनेतुमशक्यत्वादयास्य इन्द्र एवोच्यते।’[22] कि ऋग्वेद के प्रमाण से विदित होता है कि अङ्गिरसों में अन्यतम ऋषि अयास्य है अथवा जिसे लाना सम्भव नहीं है, वह इन्द्र ही अयास्य है।

सायण के अनुसार अयास्य

आचार्य सायण अयास्य का विवेचन कुछ अधिक गम्भीरता से करते हुए कहते हैं-‘यासः प्रयत्नः। तत्साध्यो यास्यः। न यास्योऽयास्यः। युद्धरूपैः प्रयत्नैः साधयितुमशक्य इत्यर्थः। यद्वा। अयास्यः पञ्चवृत्तिर्मुख्यप्राणः। स हि आस्यात् मुखात् अयते गच्छति निक्रामति। तदुपासकोऽप्यङ्गिरा उपचारात् अयास्य उच्यते। तथा च छन्दोगैराम्नातम्-‘तं हायास्य उद्गीथमुपासांचक्रे एतमु एवायास्यं मन्यन्त आस्याद्यदयते तेन’ (छा0उ0, 1.2.12) इति। अथवा। अयमास्ये मुखे वर्तते इत्ययास्यः। तथा च वाजसनेयकम्-‘ते होचुः क्व नु सोऽभूद्यो न इत्थमसक्तेत्ययमास्येऽन्तरिति’ (बृ0उ0,1.3.8) इति। पूर्ववदुपासकोऽप्ययास्यः’[23] ‘कि यास का अर्थ है-प्रयत्न, उससे साध्य यास्य और जो प्रयत्न से साध्य न हो, वह अयास्य। अथवा पञ्चवृत्तियों वाला मुख्य प्राण अयास्य है, वह आस्य अर्थात् मुख से निकलता है, उसका उपासक अङ्गिरा भी उपचार से अयास्य कहा जाता है-उस अयास्य ने प्राण के रूप में उद्गीथ की उपासना की। लोग इस प्राण को ही आयास्य मानते हैं, क्योंकि यह आस्य (मुख) से निकलता है। अथवा यह आस्य (मुख) में रहता है, इसलिये यह अयास्य है। इस विषय में वाजसनेय का प्रमाण-वे बोले वह कहाँ है, जिसने हमें इस प्रकार असक्त अर्थात् देवभाव को प्राप्त किया। उन्होंने विचार करके निश्चय किया कि वह आस्य के भीतर है। पूर्वोक्त प्रकार से उपासना करने वाला उपासक भी अयास्य है।’

अयास्य नामकरण का निहितार्थ

सायण द्वारा उद्धृत छान्दोग्य और बृहदारण्यकोपनिषद् के पूर्वापर प्रसङ्ग का अवलोकन करने के पश्चात् स्पष्ट होता है कि छान्दोग्य में उद्गीथ बताकर प्राण की उपासना करने के लिये कहा जा रहा है,[24] जबकि बृहदारण्यक में उद्गाता के रूप में प्राण का उल्लेख है।[25] शुनःशेप आख्यान में अयास्य को उद्गाता बताया गया है, जो उपनिषद् की भावना के साथ संगत हो रहा है। बृहदारण्यक के उक्त वक्तव्य से प्राण की उपासना करने से असक्त स्थिति का निर्माण होता है और उससे देवत्व की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अयास्य प्राणसाधना से प्राप्त होने वाली वह स्थिति है, जिसमें प्रयास का महत्त्व नहीं रह जाता है। दूसरे शब्दों में इसको सांख्य के द्रष्टा और साक्षी भाव की साधना के समान माना जा सकता है, क्योंकि निर्विकार आत्मतत्त्व को किसी विकार (प्रयत्न) के द्वारा नहीं पाया जा सकता।

ऋत्विक् चतुष्टय का निहितार्थ

शुनःशेप के नरमेध के यज्ञ को सम्पन्न कराने वाले चार ऋत्विज हैं-विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ और अयास्य। इनमें से प्रथम दो विश्वामित्र और जमदग्नि जीवन की सकारात्मक दृष्टि को निरूपित करते हैं, वहीं अन्तिम दो वसिष्ठ और अयास्य प्राणसाधना और उससे उपलब्ध होने वाले सोपान को इंगित करते हैं। यदि इस प्रकार किसी का नरमेध किया जाये तो निश्चित रूप से उसका उत्कर्ष होगा। फिर वह वह नहीं रह जायेगा, जो त्रिविध बन्धन से पूर्व था। शास्त्र में जिसे द्विजत्व की उपलब्धि कही जाती है, वह स्थिति भी द्विजपूर्व स्थिति का वध करती है। ब्रह्मचर्य सूक्त में वर्णन है कि जब ब्रह्मचारी तीन रात्रियों पर्यन्त आचार्य के गर्भ में रह लेता है, तब उसे देखने के लिये देवता आते हैं।[26] आगे मन्त्र कहता है कि अपने अन्दर से ब्रह्म को उत्पन्न करने पर ब्रह्मचारी इन्द्र बन जाता है और असुरें का नाश करने में समर्थ होता है।[27] पशु से द्विज बनने या ब्रह्मचारी से इन्द्र बनने या फिर तीन रात्रि पर्यन्त यम के आवास पर रहने पर जो चमत्कारी परिवर्तन होते हैं, वही परिवर्तन शुनःशेप में त्रिविध बन्धन से मुक्त होने पर होते हैं।

उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि शुनःशेप भी तीन बन्धनों में बँधा हुआ है, वहीं अथर्ववेद का ब्रह्मचारी आचार्य के उदर में[28] और कठोपनिषद् का नचिकेता यम के आवास पर तीन रात्रि पर्यन्त रहता है।[29] उपर्युक्त अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण और कठोपनिषद् की वक्तव्य शैली एक ही दिशा की ओर संकेत कर रही है। हम बन्धन कहें या रात्रि कथ्य एक ही है। अथर्ववेद और कठ रात्रि के माध्यम से त्रिविध दुःखों का प्रतिपादन कर रहे हैं, वहीं ऋग्वेद से प्राप्त संकेत के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण तीन बन्धनों से बँधे हुए के रूप में शुनःशेप को कुत्ते की पूँछ बता रहा है। अज्ञान और उससे जन्य दुःखों पर प्रहार करने के ये दोनों प्रकारमात्र हैं। यह कहना अधिक उचित होगा कि जहाँ अथर्ववेद और कठोपनिषद् की शैली अधिक शिष्टता और सुकुमारता लिये हुए है, वहीं ऐतरेय ब्राह्मण की कथनशैली अधिक प्रभावी रूप से मर्म पर प्रहार करने में सक्षम है और रुककर सोचने के लिये विवश करती है।

बलि से बचने हेतु शुनःशेप का प्रयास

जब कोई उक्त चार ऋत्विजों से दीक्षित होकर यज्ञ करेगा, स्वाभाविक रूप से यज्ञ के अधिपति देवता प्रजापति के साथ उसकी सन्निकटता बढ़ जायेगी। सम्भवतः इसलिये ऐतरेय ब्राह्मण भी प्रथम शुनःशेप को प्रथम प्रजापति के समीप जाने का उल्लेख करता है। और ब्राह्मण के अनुसार भी ‘कस्य॑ नू_नं क॑त॒मस्या॒मृता॑ना॒म्’[30] मन्त्र का पाठ करता हुआ शुनःशेप प्रजापति के पास जाता है।[31] प्रजापति कहता है कि अग्नि देवों के सबसे अधिक निकट है, इसलिये तू अग्नि के पास जा।[32] वह निम्न मन्त्र का पाठ करता हुआ अग्नि के पास जाता है-‘अ॒ग्नेर्व॒यं प्र॑थ॒मस्या॒मृता॑ना॒म्’।[33] अग्नि ने उससे कहा कि प्राणियों का स्वामी सविता है, अतः तू सविता के पास जा। निम्न तीन मन्त्रों से वह सविता की उपासना करता है-‘अ॒भि त्वा॑ देव सवित॒रीशा॑न॒म्’, ‘यश्चि॒द्धि त॑ इ॒त्था भग॑ः शशमा॒नः पु_रा नि॒दः’, ‘भग॑भक्तस्य ते व॒यमुद॑शेम॒ तवाव॑सा।’[34] सविता ने कहा कि तू वरुण के लिये बाँधा गया है, अतः तू वरुण के पास जा।[35] तब शुनःशेप31मन्त्रों (ऋ01.24.6-15; 25.1-21) से वरुण से प्रार्थना करता है। प्रसन्न होकर वरुण उससे कहता है कि देवों में अग्नि मुख्य है, अतः तू उसीकी स्तुति कर, तब शुनःशेप 22 मन्त्रों (ऋ01.26.1-10तथा1.27.1-12) से अग्नि की स्तुति करता है।[36] प्रसन्न होकर अग्नि उससे विश्वेदेवाः देवों की स्तुति करने के लिये कहता है, तब शुनःशेप ‘नमो॑ म॒हद्भय़ो॒ नमो॑ अर्भ॒केभ्यो॒ नमो॒ युव॑भ्यो॒ नम॑ आशि॒नेभ्य॑ः’[37] मन्त्र से विश्वदेवों की स्तुति करता है।[38] इसके उत्तर में विश्वदेवों ने उससे कहा कि तू इन्द्र की स्तुति कर, तब उसने शुनःशेप दृष्ट ऋ01.30.1-15 तक मन्त्रों से स्तुति की,[39] प्रसन्न होकर इन्द्र ने उसे हिरण्यरथ प्रदान किया[40]-‘स नो॑ हिरण्यरÇथं दं॒सना॑वा॒न्त्स न॑ः सनि॒ता स॒नये॒ स नो॑ऽदात्।’[41] इसके पश्चात् इन्द्र ने कहा कि तू अश्विनी देवों की स्तुति कर, तब तू पाश से छूटेगा। उसने तीन मन्त्रों से अश्विनी देवों की स्तुति की,[42] अश्विनी देवों ने कहा कि उषा की स्तुति कर, तदनुसार उसने तीन मन्त्रों से उषा की स्तुति की[43] ऐसा करते ही सहसा उसके बन्धन खुलते चले गये और हरिश्चन्द्र का पेट ठीक होता चला गया और अन्तिम मन्त्र के पढ़ते ही वह शुनःशेप बन्धनमुक्त और हरिश्चन्द्र रोगमुक्त होगये।’[44]
© ANANT KUMAR MISHRA JI