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अप्रत्यक्ष से प्यार, प्रत्यक्ष पर वार
अप्रत्यक्ष से प्यार,
प्रत्यक्ष पर वार।

हम मनुष्य का स्वभाव कितना विचित्र सा होते जा रहा है। जीवन की भौतिक सुख सुविधाओं में तो हम धनी होते जा रहे है, पर मानसिक शक्ति और संवेदना के ख़ज़ाने खाली होते जा रहे है। अगर आप मनुष्य को छोड़ किसी अन्य जीव को निहारे तो आप पाएंगे कि वह अपने चारों ओर के पर्यावरण से कितना खुश है जितना खाना और पानी मिला उसे पाकर वह संतुष्ट है उसे अपनी आवश्यकता से अधिक एक कण या एक बूंद भी अधिक अस्वीकार है और वह अपने जीवन से संतुष्ट भी है, वह किसी अन्य के मुँह का निवाला नही छीनता और न ही बेवजह लड़ाई करता, जीव प्रकृति पर केवल मूल आवश्यकता की संतुष्टि तक सीमित है और इससे अधिक उसे कुछ भी नही चाहिए।
पर मनुष्य का स्वभाव वर्तमान के भौतिक सुख सुविधाओं के प्राप्त होने के बाद बहुत जटिल होते जा रहा है, हमे "और","और"केवल "और" पाने की लालसा है और वही हमे तनाव और मानसिक रुप से कमजोर करता जा रहा है और हमारा स्वभाव में एक अजीब सा परिवर्तन लाते जा रहा है। जो व्यक्ति हमारे समक्ष प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है हम उन्हें महत्व नही दे रहे है उसका तिरस्कार कर रहे है क्योंकि हम सोच रहे है कि वह हमारे सामने एक याचक के रूप में है और हम उस याचक से बुरा से बुरा व्यवहार कर सकते है यह हमारा अधिकार है कि हम प्रत्यक्ष उपस्थित व्यक्ति का अनादर करें, तथैव जो हमारे जीवन मे अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है उस पर हम ज्यादा से ज्यादा अपना प्यार और सम्मान दे रहे है, प्रत्यक्ष खड़े व्यक्ति को छोड़ हम फोन पर बातें करने वाले को महत्व दे रहे है। क्या आप कभी भोजन की कतार में लगे पहले व्यक्ति को छोड़ आप अंतिम व्यक्ति या जो कतार में नही है उसे पहले भोजन देना अपना धर्म समझते है नही न तो फिर जो आपके समक्ष उपस्थित है उसे मान और सम्मान दीजिये और जो समक्ष नही है और कतार में नही है उसे बाद में अपनी दया दृष्टि से सराबोर कर दीजिये पर उस व्यक्ति को पहला महत्व दीजिये जो आपके समक्ष है,आपके साथ है, जो आपकी वह ताकत बन सकता है, आपकी रक्षा कर सकता है न कि दूर के ढोल के मीठी मीठी आवाज पर मंत्रमुग्ध हो जाये।
प्रत्यक्ष से प्यार पहले जताइए,
अप्रत्यक्ष से बाद में।
ऐसा न करें कि
अप्रत्यक्ष से प्यार,
प्रत्यक्ष पर वार।
संजीव बल्लाल
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