...

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चांद का मुंह टेढ़ा है।
नगर के बीचो-बीच

आधी रात—अँधेरे की काली स्याह

शिलाओं से बनी हुई

भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए

ऊँचे-ऊँचे कंधों पर

चाँदनी की फैली हुई सँवलाई झालरें।

कारख़ाना—अहाते के उस पार

धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे

उद्गार—चिह्नाकार—मीनार

मीनारों के बीचो-बीच

चाँद का है टेढ़ा मुँह!!

भयानक स्याह सन तिरपन का चाँद वह!!

गगन में करफ़्यू है

धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है!!

पीपल के ख़ाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,

पैठे हैं ख़ाली हुए कारतूस।

गंजे-सिर चाँद की सँवलाई किरणों के जासूस

साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम

नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे हैं!!

चाँद की कनखियों की कोण-गामी किरनें

पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है

अँधेरे में, पट्टियाँ।

देखती है नगर की ज़िंदगी का टूटा-फूटा

उदास प्रसार वह।

समीप विशालाकार

अँधियाले लाल पर

सूनेपन की स्याही में डूबी हुई

चाँदनी भी सँवलाई हुई है!!

भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत

मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर

बहते हुए पथरीले नालों की धारा में

धराशायी चाँदनी के होंठ काले पड़ गए

हरिजन गलियों में

लटकी है पेड़ पर

कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी—

चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर

टेढ़े-मुँह चाँद की।

बारह का वक़्त है,

भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यंत्र

शहर में चारों ओर;

ज़माना भी सख़्त है!!

अजी, इस मोड़ पर

बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल

अजगरी मेहराब—

मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में

बसी हुई

सड़ी-बुसी बास लिए—

फैली है गली के

मुहाने में चुपचाप।

लोगों के अरे! आने-जाने में चुपचाप,

अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप

फड़फड़ाते पक्षियों की बीट—

मानो समय की बीट हो!!

गगन में करफ़्यू है,

वृक्षों में बैठे हुए पक्षियों पर करफ़्यू है,

धरती पर किंतु अजी! ज़हरीली छिः थूः है।

बरगद की डाल एक

मुहाने से आगे फैल

सड़क पर बाहरी

लटकती है इस तरह—

मानो कि आदमी के जनम के पहले से

पृथ्वी की छाती पर

जंगली मैमथ की सूँड़ सूँघ रही हो

हवा के लहरीले सिफ़रों को आज भी

घिरी हुई विपदा घेरे-सी

बरगद की घनी-घनी छाँव में

फूटी हुई चूड़ियों की सूनी-सूनी कलाई-सा

सूनी-सूनी गलियों में

ग़रीबों के ठाँव में—

चौराहे पर खड़े हुए

भैरों की सिंदूरी

गेरुई मूरत के पथरीले व्यंग्य स्मित पर

टेढ़े-मुँह चाँद की ऐयारी रोशनी,

तिलिस्मी चाँद की राज़-भरी झाइयाँ!!

तजुर्बों का ताबूत

ज़िंदा यह बरगद

जानता कि भैरों यह कौन है !!

कि भैरों की चट्टानी पीठ पर

पैरों की मज़बूत

पत्थरी-सिंदूरी ईंट पर

भभकते वर्णों के लटकते पोस्टर

ज्वलंत अक्षर !!

सामने है अँधियाला ताल और

स्याह उसी ताल पर

सँवलाई चाँदनी,

समय का घंटाघर,

निराकार घंटाघर,

गगन में चुपचाप अनाकार खड़ा है!!

परंतु, परंतु... बतलाते

ज़िंदगी के काँटे ही

कितनी रात बीत गई

चप्पलों की छपछप,

गली के मुहाने से अजीब-सी आवाज़,

फुसफुसाते हुए शब्द!

जंगल की डालों से गुज़रती हवाओं की सरसर

गली में ज्यों कह जाए

इशारों के आशय,

हवाओं की लहरों के आकार—

किन्हीं ब्रह्मराक्षसों के निराकार

अनाकार

मानो बहस छेड़ दें

बहस जैसे बढ़ जाए

निर्णय पर चली आए

वैसे शब्द बार-बार

गलियों की आत्मा में

बोलते हैं एकाएक

अँधेरे के पेट में से

ज्वालाओं की आँत बाहर निकल आए

वैसे, अरे, शब्दों की धार एक

बिजली के टॉर्च की रोशनी की मार एक

बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर

फैल गई अकस्मात्

बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर

फैल गए हाथ दो

मानो हृदय में छिपी हुई बातों ने...