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संक्रांति काल-पाषाण युग २
जननी की पीड़ा

अम्बी ने अल्पवय में ही,अपनी जननी के दर्द को,बहुत गहराई से महसूस किया था।उसकी जननी का अनेक पुरुषों द्वारा शिकार के एवज में नोंचा जाना,उसे आज भी ख़्वाबों में डराता है।

उसने देखा था ....पहले सिर्फ राखा (उसका पिता)उसकी माँ धारा के साथ संसर्ग करता था,पर उसके जाने के बाद उसने अपने भाईयों के अंदर का शिकारी देखा,जो पहले बड़ा शिकार लाने की होड़ करते.....और फिर,जो भी सबसे बड़ा शिकार लाता,वही धारा को भोगता।पुरुष की ना खत्म होने वाली भूख़ को,उसके अहं को और विशेषता का दर्जा पाने के लिए पुरुषों के बीच की ताकत की होड़ को उसने बड़ी गहराई से,अपनी माँ धारा को देखते हुए ही जान लिया था।अम्बी ने जाना था पुरुष की उन कमजोरियों को जिन्हें वो शारीरिक सामर्थ्य की आड़ में छिपाए रखता था।

उस दिन का मंजर याद आते ही अम्बी के रौंगटे खडे हो जाते हैं।सब से बडा कुआंग बड़ा शिकार नहीं ला पाया था ...और ओमांग जो उत्पत्ति के आधार पर चौथे स्थान पर था,गर्व प्रदर्शन करता सबके सामने बड़ा शिकार कंधे
पर डाले कैसा तनकर आ रहा था।उसके हाव भाव देख कर अम्बी और धारा दोनों.....ही हंस पड़ी थीं।उस हँसी ने ज़ख्म पर नमक का काम किया....कुआंग को ये अपमान महसूस हुआ।जाने वो कैसा दानव उसके सर पर चढ़ बैठा था कि,उसने ओमांग पर अपने भारी कुल्हाडे़ से प्रहार कर दिया ...एक ही वार में ढेर हो गया था...ओमांग।

खिलखिलाहट ,रोष और चिल्लाहट में तब्दील हो गई।धारा अपने शरीर के अंश को तड़पता देख कुआंग पर बरस पड़ी और शायद इसे इशारा मान बाकी पाँचों कुआंग पर टूट पड़े थे ,पर एक-एक कर कुआंग ने बाकी के पाँचों को भी मार दिया।अम्बी हतप्रभ सी खड़ी देखती रही।

कुआँग ने शक्ति प्रदर्शन में अपनी श्रेष्ठता तो साबित कर दी,मग़र शिकार करने वाली ख़ुशी कहीं भी नहीं थी...उसकी आँखों में।अपने कृत्य के बाद क्षोभ और विषाद से भर चुका था कुआँग . धारा को तो समझ ही नहीं आया कि ये संसार जिसे इतना अरसा लगाया,बसाने में,पुरुष के जरा से आवेग से कैसे ध्वस्त हो गया।टूटे कदमों से धारा और अम्बी ने मिलकर ओमांग समेत बाकी पाँचों को पहाड़ की चोटी पर ले जाकर देवता के सुपुर्द किया।

कुआंग घंटों तक घुटनों में सिर डाले बैठा रहा।अम्बी को समझ नहीं आ रहा था की कल तक ये सभी तो.... धारा को भोगते वक्त इतना दर्द देते थे...कई दिनों तक निशान नहीं जाते थे ....और आज ......वो नहीं हैं,तो भी धारा उतनी ही पीड़ा में.....क्यों?
और कुआंग जो कभी धारा को किसी के साथ सहन नहीं कर पाता था ...वो क्यों दुखी है ..?जबकि सारे प्रतिद्वंदी उसने स्वयं अपने हाथों से समाप्त कर दिए थे....अब तो वो धारा पर पूर्ण अधिकार जता सकता था।कुआंग ने आवेश में अपने भाईयों को मार तो डाला पर अब उनके बिना अकेलापन शायद उसे निगल रहा था.....।

दो ही दिन में उसका बलिष्ठ शरीर पीला पड़ गया,धारा ने उसे सम्हालने का यत्न किया ... पर वो इतनी तकलीफ में था कि,धारा का आकर्षण भी उसमें उमंग नहीं भर सका। गुफा का अंतिम पुरुष भी शिकार हो गया...अपने विषाद का!अगली सुबह,अपने थके शरीर के साथ,कुआंग शिकार पर गया........फिर वापस नहीं आया............ शायद,अपनी टूटी देह को देवता को समर्पित कर दिया था उसने .....!

अब गुफा में मात्र दो प्राणी रह गए थे धारा और अम्बी। धारा चिंता में थी....सारा माँस खत्म हो गया था और गुफा में कोई पुरुष भी नहीं था जो माँस ला सके।भूख का डर तो था ही,उससे बड़ा डर था सुरक्षा का,अनजाने पुरुष चेहरों से सुरक्षा का,भयानक पशुओं से सुरक्षा का!
साथ ही डर था एकमात्र संतान अम्बी के भावी जीवन का।अम्बी ....जिसके जीवन में ..किसी पुरुष का आगमन अभी नहीं हुआ था । 

धारा बहुत गहरे सोच में थी...अम्बी उसकी गोद में सिर रखकर लेटी हुई उसके भावों को समझने का,प्रयास कर रही थी।अचानक अम्बी उठकर बैठ गई .......शायद वो धारा की निराशा को समझ गई थी,इसलिए बिना उसे बताए वह कुआंग का अस्त्र लेकर देवता के पहाड़ के पास वाले वन की ओर निकल गई....कुछ तय किया था उसने!

धारा पूरा दिन उसे तलाशती रही ,वही एक तो रह गई थी जिसके साथ वो अपना अकेलापन बाँटती थी।काफी दूर तक भटकने पर भी जब अम्बी का कोई पता ना चला तो, आखिरकार थककर गुफा के बाहर आकर बेठ गई ...!
गुफा में घुटनों पर अपना चेहरा  टिकाए बेठी धारा ने जब अम्बी को बाहर से आते देख उसके टूटे शरीर में प्राण आ गए,और उसने लपककर उसे बाँहो में जकड लिया।

अम्बी को आज के उसके स्पर्श में अलग सी ही,सुखद अनुभूति हो रही थी।शायद ,ममत्व के इस भाव से वो पहली ही बार परिचय हुआ था अम्बी का।....... इससे पहले भी धारा कभी कभी अपना प्रेम प्रदर्शित करने हेतु उसे सहलाती थी .....पर आज का स्पर्श परवाह की अति तक व्याख्या कर रहा था।

उसने आँखों के इशारे से धारा को लाया हुआ शिकार दिखाया ,जिसे उसने पका कर तैयार भी कर दिया था,खाने के लिए.....।धारा जिसने पूरा जीवन पुरुष के आश्रय में उसपर निर्भर रहते हुए ही बिताया था,उसके लिए अम्बी का यह साहस प्रसन्नता मिश्रित कुतुहल का पर्याय था।उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि,बिना पुरुष के भी एक मादा अपना निर्वाह कर सकती है, शिकार कर सकती है,गुफा को आधार दे सकती है ...!  धारा देवता को धन्यवाद दे रही थी कि,अम्बी पुरुषों की तरह शिकार में माहिर भी है और एक मादा की तरह माँस भी पकाना जानती है।

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अम्बी की योग्यता और सामर्थ्य को देखने के पश्चात अब धारा को उसके भविष्य के प्रति भय नहीं रहा था ।अब तो बस यही एक चिंता थी कि देवता उसके लायक कोई पुरुष और भेज दे जिससे धारा अपनी गुफा उन्हे समर्पित कर  देवता के पास जा सके । अपने परिवार को दो ही दिनों में खत्म होता देखने के बाद , जीवन के प्रति अनासक्त हो गई थी वो ....सिर्फ अम्बी का ख़याल करके वो अपने आपको देवता के लिए समर्पित नहीं कर पाई थी । कर्तव्य पालन में नारी पुरुष से उस काल में भी आगे थी ...। पलायन का मार्ग , तब भी पुरुषों के लिए ही सुगम था , मादा तब भी आसक्ति के बंधनों में खुदको जकड़े हुए ही थी ।
क्रमशः

© बदनाम कलमकार
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