...

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आखरी सफ़र....
सुनो तुम आ जाना..
मेरी अन्तिम यात्रा में शामिल होने...
तुम आओगे ना...?

अगर नहीं आ सकोगे तो भी गिला नहीं करूंगी,
लेकिन हां..तुम कोशिश जरुर करना..
वैसे भी मैंने हमेशा कोशिशों को सराहा है..
और हां सुनो जब आना...तो..
तो उस दिन तो बोल ही देना दिल की बात..
आख़िर मेरी अंतिम यात्रा जो होगी..
या उस दिन भी डरोगे जमाने से..??

तुम आना मेरे माथे को चूम लेना..
मैं समझ जाऊंगी.. में सुहागन जा रही हूं..
धड़कने तो थम चुकी होंगी..लेकिन
मेरी रुह में तुम्हारी खुश्बू तो रह ही जायेगी

तुम आखरी दफा मेरा सिर पल्लू से ढक देना..
मान लूंगी कि तुम्हारे दामन का आगोश मिल गया..

और हां फूल भी चढ़ा देना...मुझपर..
और उस आग के साक्षी बनना
जो मुझे अपना बना रही होगी..
मुझे लगेगा कि मैंने...
उस आग के साथ सात फेरे लेकर...
तुम्हारी सुहागन हो गई हूं..

और हां सुनो....
उस दिन शायद बहुत लोग होंगे..
लेकिन सब अपने नहीं होंगे...ये याद रखना..
वो सब आए होंगे फर्ज अदायगी में...
तो वो बातें बनाएंगे...तो दिल पर मत लगाना...
बस सुनकर नजरंदाज कर देना...

और अगर तुम्हें उस दिन भी बदनामी का डर लगे..
तो दूर से शिरकत कर लेना...
दूर से अपने दिल का हाल बयां कर देना..
मैं सुन लूंगी...क्यूंकि मेरी रूह जिस्म छोड़ चुकी होगी,
और मैं तो तुम्हारे करीब ही खड़ी हूंगी...
उस रूह को ख़ाक होते देख रही हूंगी...
जिसको उम्र लग गई तुम्हें अपने करीब लाने में..
और जब आए भी..तो अब जिस्म ना रहा...
कि पल भर बैठकर वो दिल बहला सके अपना..
तो अब आपको लौटना ही होगा...
वैसे भी तुम हमेशा लौटने के इरादे से ही आए...

लेकिन तुम मुहब्बत में आना..सिर्फ मुहब्बत के लिए..
फर्ज अदायगी में मत आना...क्योंकि
मैं कोई फर्ज नहीं हूं तुम्हारा...
और ना ही बनना चाहती हूं...
मैं सिर्फ तुम्हारी मुहब्बत बनना चाहती थी..
तो वो मुकाम मैं हासिल कर चुकी हूं..
अब मुझे कुछ चाहिए ही नहीं...
तो तुम सिर्फ़ मुहब्बत के वास्ते आना..
मेरी आखरी सफ़र में... शामिल होने।

© ~ आकांक्षा मगन “सरस्वती”

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