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क्या पश्चात्ताप काफ़ी है?
कहते हैं कि एक घटना हमारी सारी जिंदगी पर भारी पड़ जाती है, वो एक लम्हा होता है जो घटता एक बार है लेकिन टीस हमें रोज देता है, आँखों के सामने किसी फिल्म की तरह चलता है, लेकिन ग्लानि इतनी बड़ी होती है कि पश्चाताप के लिए आँसू निकल कर इक निर्दोष से माफ़ी की गुहार नहीं लगा पाते।

मार्च महीने के एक रविवार की शाम, जब माँ से मैं सुमित के घर जाने को निकला, फटाफट में अपनी स्कूटी स्टार्ट की और शायद माँ की कितनी बातों को अनसुना करते हुए, हेल्मेट बिना लगाए ही निकल गया।

"पास ही तो जाना हैं...!" ये भाव तो यंग राइडर की तरह दिमाग़ में फिट थे। हेडफोन कानों में लगा कर म्यूजिक...