...

66 views

मैं, मेरी दादी और बुढ़ापा...
मेरे सिर से एक हाथ छूट चुका था। और अब महज उनकी यादें थी और उनकी बातें थी। जीवन के अंतिम दिनों में मेरी दादी को काफी संघर्ष करना पड़ा था। सारा शरीर मृत हो चुका था महज बाकि थी तो सांस।
न कुछ खाती थी और न ही कुछ पीती थी जैसे मौन ने उन्हें गैर लिया हो। 7 जुलाई सुबह के 3.40 पर जब मेरी दादी ने जीवन की अंतिम आह भरी और वो आसमान का तारा हो गई। कहा जाता है की प्रातः जाने वालों के लिए भगवान के दरवाजे खुले मिलते हैं और हो भी क्यों न , मेरी दादी ने भी अपनी ममता के दरवाजे हमेशा खुले ही रखे थे। चाहे गैर हो या परिचित। खाना हो या पानी।
एक उम्र तक दादी ने वो सब कुछ किया जो उनसे हो सकता था। एक उम्र के बाद तो शरीर भी जवाब देने लगता है। दादाजी के गुजर जाने के बाद अब वो भी अकेली हो गई थी। तो हम उन्हें अपने साथ ले आए। इन शहर की गलियों में। हालांकि यहां का माहौल भी कुछ कुछ गांव के जैसा ही था पर जो बात गांव की जमीं में होती है वो बात इन शहर की गलियों में कहां।
अब हमारा फर्ज था की हम उनकी देखभाल...