...

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कमाल की बात बताऊं
क्या तुम्हें तैरना आता है..?
दरअसल, मुझे किनारे तक जाना है।
हा-हा..
अरे नहीं..!
मज़ाक था.. मुझे तैरना आता है..
इस गहरे समुंदर में लहरों से खेलती हुई मैं किनारे तक जा सकती हूँ।
मगर सच कहूँ तो अब समुंदर से बाहर आना मुझे असहज कर रहा है। मैं डूब जाना चाहती हूँ.. शायद हमेशा-हमेशा के लिए समुंदर की गहराई में खो जाना चाहती हूँ।
मैं वापस अब किसी को मिलना नहीं चाहती।
बहुत समय तक अगर नापसन्द खिचड़ी भी खाओ तो आप उसके आदि हो जाते हो। एक समय बाद खिचड़ी आदत बन जाएगी और आदत ज़रूरत बन जाएगी।
ऐसे ही मुझे अब इस समुंदर की आदत हो चुकी है। मैं अब इसके बिना नहीं रह सकती।
अपनी बे-लिबास ख़्वाहिशों को मैंने यहीं इसकी गहराई में दफनाया है। वो बहुत निजी धन है मेरा। मुझे डर है मैं किनारे पर आ गई तो वह ख़्वाहिशें पानी की ऊपरी सतह पर आकर तैरेंगी और दिख जाएंगी सबको। सब जान जाएंगे और उनका मज़ाक उड़ाएंगे।
नहीं..!
अब यह सम्भव ही नहीं है कि मैं धीरे-धीरे किनारे पर आ सकूं। किनारे तक मेरा जीवित आना कठिन हो गया है.. इसे मृत्यु ही सरल कर सकती है।
..
'मृत्यु' से याद आया..बचपन में जब 'मृत्यु' शब्द को पढ़ा था मैंने तो समझ नहीं आया था और देखो आज जब स्वयं उसकी परिभाषा बन गई हूँ तो अब यह समझ नहीं आता की दुःखी हो जाऊं या खुश!
अब दुःख से सम्बन्धित हर शब्द को स्वयं के लिए सार्थक होता देखना दुःखद नहीं लगता और सुखद तो 'सुखद' स्वयं भी नहीं रहा।
एक कमाल की बात बताऊं..
मेरे नाम का पर्यायवाची जब नहीं मिला मुझे तो मैंने 'लाश' शब्द को ही पर्यायवाची बना लिया।
कैसा है?
अच्छा है ना?
आह!
कुछ चुभा मुझे.. जैसे इस समुंदर की नरम लहरों के बीच कुछ भारी सी चीज मुझसे टकरा गई हो..
वो देखो.. वो क्या है..?
वो तो लाश है.. अरे वो तो मेरी ही है..!
..
श्श्श!......
मैंने झूठ कहा था..
मुझे तैरना नहीं आता।
-रूपकीबातें
💔
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© रूपकीबातें